गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

Searching Manish Sisodia

आओ मनीष सिसौदिया का पता लगाएं

यूपी के प्राइमरी स्कूलों में पढ़े लोगों को विज्ञान-आओ करके सीखें किताब तो याद ही होगी। इस किताब में विज्ञान पढ़ाने की अनोखी और बड़ी ही दिलचस्प तरकीब होती थी- आओ करके सीखें जिसका सबसे दिलचस्प पहलू मुझे लगता था- आओ इसका पता लगाएं। तो, इस बार मुंबई से दिल्ली आने पर एक दिन इसी प्राइमरी साइंस के नाम।


पंकज शुक्ल


मुंबई से दिल्ली आए तीसरा दिन है। पिछली रात मशहूर समाजसेविका संपत पाल से महिला दिवस के एक कार्यक्रम के सिलसिले में लंबी बात हुई। सुबह आदतन वैशाली में रामप्रस्थ ग्रीन्स की लंबी और खुली सड़क पर तेज़ कदमों टहल रहा हूं। सोमवार (23 दिसंबर 2013) को मनीष सिसौदिया के नंबर पर फोन किया था, किसी शाक़िर ने उठाया। पूरा इंटरव्यू लिया। कौन हो, कहां से बोल रहे हो, क्यों फोन कर रहे हो, वगैरह वगैरह। बोला, संदेश मनीष जी तक पहुंच जाएगा। क़ासिदों पर भरोसे की देश में पुरानी परंपरा रही है। हमने भी किया। अगले दिन सुबह पुराने मित्र और आशुकवि कुमार विश्वास से मुलाक़ात हुई। उसी पुराने जोश खरोश से मिले। न कहीं आम आदमी पार्टी को यहां तक लाने का किसी तरह का आडंबर और न ही किसी तरह का अहम। अमेठी में प्रस्तावित सभा की तैयारियों में लगे हैं। लोग आ रहे हैं, मिलना जुलना चलता रहा। मैं कुछ देर बैठ निकल आया।

मैंने कुमार विश्वास से मनीष का निजी नंबर पूछना उचित नहीं समझा। निजी नंबर निजी होते हैं। आपके नंबर सार्वजनिक हो जाएं तो क्या होता है? ये बात एनडीटीवी के रवीश कुमार बेहतर समझा सकते हैं। वह कहते हैं दो नंबर जाली लोग रखते हैं। लेकिन रवीश भाई, मजबूरियों को समझिए। खैर, बुधवार की सुबह की बात हो रही थी। मेरे मन में पेंडिंग काम अपना अपना मेमो लेकर घूम रहे हैं। दोपहर वापस मुंबई की फ्लाइट पकड़नी है। फोन बजता है। दूसरी तरफ मनीष सिसौदिया हैं। खेद जताते हैं कि वह बीते दो दिन बात नहीं कर सके। मैंने बताया कि वह अब आप के नहीं दिल्ली के मंत्री बनने वाले हैं, सो व्यस्तता समझी जा सकती है।

तय हुआ कि पांडव नगर में कोई साढ़े ग्यारह बजे मिला जाए। उधर से ही मैं एयरपोर्ट चला जाऊं। मनीष ने रास्ता रफ़्तार से समझाया और मेरा दिल्ली का कमज़ोर भूगोल कि मैं सब कुछ समझ नहीं पाया। मनीष की ये बात याद रही कि गाड़ी मेन रोड पर छोड़ दीजिएगा और अंदर गली में आ जाइएगा। लेकिन, मैंने तय किया कि आम आदमी पार्टी का ज़रा दिल्ली में मामला टटोला जाए। सो, टैक्सी से नहीं। मेट्रो से चला जाए। सो, वैशाली स्टेशन से लक्ष्मी नगर और वहां से नीचे सड़क पर। पटरियों पर बेतरतीब दुकानें। पैदल चलने वाले सड़क पर, फुटपाथों पर दुकानदारों का कब्ज़ा।

ऑटो वाले थोक में लपके। हमने एक से फुटकर भाव तौल करनी चाही। पर, सोचा चलो बैठते हैं। देखते हैं कि कैसा है ऑटोवाला? बैठने के बाद नाम-धाम पूछने के बाद मैंने सीधा सवाल दागा, “आप लोग मीटर से क्यों नहीं चलते?” ऑटो चालक अरुण झा कहते हैं, “साब मीटर से 26 रुपये बनेगा मदर डेरी तक। हम थोड़ा अंदर भी छोड़ देंगे आपको, आप परेशान न हों।” मैंने पूछा, “मनीष सिसौदिया को जानते हो? आम आदमी पार्टी वाले!” झा साब बोले, “दिल्ली में एक लाख ऑटो वाला है। हमने आप को जिताया है। दिल्ली का 75 फीसदी ऑटोवाला ईमानदार है। अब गंदा आदमी तो कहां नहीं होता। आम आदमी पार्टी ही देखिए कुल 28 ठो आदमी विधायक बना है। बीसै है ना पढ़ा लिखा। बाकी आठ गो तो किसी काम का नहीं।” दो अलग अलग जगहों का और वहां के जीते विधायकों का उन्होंने नाम लिया। जिनमें से एक के बारे में उनका मानना है कि वह सफाई कर्मचारी है और दिन भर शराब के नशे में धुत रहता है। इसलिए विधायक बनने लायक नहीं है। दूसरे का नाम लेते वक्त थोड़ी ईर्ष्या दिखी झा साब की आवाज़ में क्योंकि वह ऑटो चालक था, अब विधायक है। मेरी दिलचस्पी चूंकि जल्दी से जल्दी मनीष के घर पहुंचने की और फिर अपनी फ्लाइट पकड़ने की थी, सो मैं ज्यादा सवाल-जवाब झा साब से कर नहीं सका।

मदर डेरी के पास की दुकान पर मैंने ऑटो से उतरकर दो चार लोगों से मनीष सिसौदिया के घर के बारे में पूछा। सबका एक ही जवाब, हां नाम तो सुना है पर घर पता नहीं। बातों में तंज से ज्यादा इस बात की जलन दिखी कि लोग अब आपवालों का नाम पता भी पूछने लगे। ख़ैर, आप पत्रकार हैं तो आपको इस तरह की बेअदबी की आदत डालना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो ख़बर का असली स्वाद नहीं मिल पाता। किसी ने बताया कि इधर पटपड़गंज की तरफ जाओ, वहीं कहीं रहते हैं। हम मुड़ लिए। झा साब ने चाय की दुकान पर अख़बार पढ़ रहे एक सज्जन की तरफ इशारा किया, “बाबू, इनसे पूछिए।” लेकिन, साब ने मनीष का नाम सुनकर अखबार से सिर तक बाहर नहीं निकाला। एक फल वाला मिला। अमरूद के नीचे एक फ्लेक्सी पोस्टर बिछा है। मनीष सिसौदिया का चेहरा उस पर चमक रहा है! सवाल सुनते ही बोला, “ए बाबू, इनका पूछत हौ। हम इनका नामौ सुना है। चेहरौ पहिचानित है। मुला घर नाईं मालूम।”

मैंने मनीष के जय-विजय यानी अंकित और शाकिर से बात करने में ही भलाई समझी। इस बार फोन शायद किसी तीसरे बंदे ने उठाया। उसने पता बताया ई 58, मयूर विहार फेस वन की तरफ। हम फिर चल पड़े। एक दो गलियों में भटकने के बाद एक बिल्डिंग का पता चला। जिसका मेन शटर बंद था। रास्ता दूसरी गली में पीछे की तरफ से था। ऑटो वाले को लगा कि मैं मंजिल तक पहुंच गया। फुटकर का जुगाड़ न होता देख ऑटोवाला मेरे पास मौजूद दस रुपये में ही मानने को तैयार दिखा। मैं हैरान। वह बोला, साब आजकल पुलिस वालों की वसूली बंद है सो एडजस्ट समझो। मुझे भी लगा कि मैं मंजिल पर हूं। पर ऐसे भ्रम तो जीवन में होते ही रहते हैं जिसे हम मंजिल समझते हैं, वो एक नई चुनौती बन जाती है। खैर, छुट्टा तीन चार दुकानों पर भी नहीं मिला तो एक मोनैको बिस्कुट पैकेट की खरीद पर मामला सुलटा। झा साब को तयशुदा 30 रुपये देकर मैंने गली में घुसकर पीछे का रास्ता तलाशा।

एक लोहे के गेट के दोनों पल्लों को जंजीर से बांधा हुआ है। बस एक बार में एक ही आदमी तिरछा होकर निकल सकता है। सुरक्षा और भीड़ रोकने का ये देसी तरीका हर जगह काम आता है। ऊपर पहुंचा तो किसी दफ्तर जैसा माहौल दिखा। निकला भी ये मनीष सिसौदिया का ही दफ्तर। पर, वहां घेरा बनाकर बैठे दर्जन भर लोगों में मनीष नहीं दिखे। मेरे चेहरे पर सवाल गहराते दिखे तो एक ने पूछा और फिर बताया कि वो तो वहां दूसरी तरफ पुल के उस ओर फलां बोर्ड वाले घर में पहली मंजिल पर मिलेंगे। यहां से सौ मीटर का वाकिंग डिस्टेंस है।

वाकिंग अपन की हॉबी है। सो हम बैग उठाए और चल पड़े जिधर दो डग मग में, की तर्ज़ पर निकल पड़े उस ओर जहां की बिल्डिंग पर बड़ा सा बोर्ड दिखना था-सिंह चिकन कॉर्नर। उसी के पीछे कहीं मनीष का घर होना बताया गया। ढूंढते ढूंढते आखिर अपन जा पहुंचे मनीष के घर। घर क्या, पार्टी दफ्तर ज्यादा लग रहा था। तीन कमरों का एक फ्लैट। हर कमरे में मनीष के घर वालों से ज्यादा आम आदमी पार्टी के समर्थकों का दखल साफ दिख रहा था। मनीष की पत्नी पहले मिलीं। मनीष पास वाले कमरे में किसी प्रशासनिक अधिकारी के साथ बैठक कर रहे थे। ईमानदार अफसरों की ढूंढ मची है। लेकिन, जो साथ में हैं, उनका तो हमेशा बेईमान अफ़सरों से ही साबका पड़ता रहा। अब ईमानदार कहां से लाएं? ख़ैर सरकार बना लेंगे तो ईमानदार अफ़सर भी दस-बारह तो तलाश ही लिए जाएंगे।

मनीष व्यस्त हैं। मैं आस पास नज़र दौड़ाता हूं। एक आम आदमी का सा ही घर। मीटिंग के बीच दरवाजा खुलता है। मनीष का बेटा मीर अंदर झाकता है। फिर पापा को बिज़ी देख लौटने लगता है। मनीष उसे भीतर बुलाते हैं। लाड़ से अपने सीने से चिपटा लेते हैं। मेरी तरफ इशारा करते हैं। इनको पहचाना? ये मेरे बहुत पुराने दोस्त हैं, पंकज जी। मुझे बेटे का नाम याद आता है- मीर। मैं सिर हिलाता हूं। बेटा तब तक खुद अपना नाम बताने लगता है, मीर, एम डबल ई आर। गहमागहमी जारी है। मनीष चाय का आग्रह करते हैं। अपनी निगाहें घड़ी पर हैं। दिमाग में कैलकुलेशन जारी है। यहां से लक्ष्मीनगर 15 मिनट। वहां से राजीव चौक 15 मिनट। फिर नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन। वहां से एयरपोर्ट एक्सप्रेस 45 मिनट और..। जीवन बस इसी गुणा भाग में बीतता रहता है। कुछ लोग हैं, मनीष जैसे जो गणित छोड़ जीवन दर्शन लिखने निकल पड़ते हैं। मुझे याद आ रहा है कोई 22-23 साल पहले का वो दिन जब अपने गांव फतेहपुर चौरासी में टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर मैं काले झंडे लगा रहा हूं। बाज़ार में मुट्ठी भर लोगों की सभा है। थाने में कोई बिगड़ैल दरोगा एसओ बनकर आया है। मुझे माइक थमाया जाता है। मैं दरोगा को चुनौती देने के मूड में आ जाता हूं। लाउडस्पीकर सुनकर लोग दंग हैं। लोग बस्ती की दुकानें बढ़ाकर बाज़ार की तरफ आ निकलते हैं। मुझे देख लोग बतिया रहे हैं, ‘ई का कर रहा है शुक्लाजी का लड़का, मारा जाएगा अभी...

9 टिप्‍पणियां:

  1. Manish sisodia a ghar aapne dhundh hi liya.aam aadmi ki talash bhi shayad puri ho hi jaye! Taqreeban 10 saal delhi mein rahi hun ..akele.kayi rang dekhe is shehar ke..achche bhi bure bhi.yahan ki fiza ..lagta hai badal rahi hai ab..

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  2. 'किसी से मिलने में क्या परेशानियां आती हैं' का एक टू-द-प्वायंट लेखन। आपकी कवायद सफल रही। सिसौदियाजी के सादगी को सलाम। आप उनसे अपने मिलने के प्रयोजन के बारे में, इशारों में ही सही, कहते तो शायद अच्छा रहता।

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अमर शहीद ऊधम सिंह ज़िंदाबाद - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. Manmohan Bhatt - देखते हैं। लेकिन, हां मनीष के मंत्री बनने के बाद फिर से एक बार ऑटो से ज़रूर जाऊंगा। और, उन्हीं सब ठिकानों पर उनका पता भी पूछूंगा। बोले तो इस आर्टिकल का सीक्वेल का आइडिया दे दिया तुमने ;)

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  5. श्यामनंदन- मनीष ने जब नौकरी छोड़ समाजसेवा में कूदने का फैसला किया, तो मैं ज़ी न्यूज़ में शिफ्ट इंचार्ज हुआ करता था और मनीष रनडाउन प्रोड्यूसर। कई दिनों तक वह उहापोह में रहे कि नौकरी छोड़ें कि नहीं। एक दिन हम लोग चाय पर देर तक बैठे। मैंने मनीष को बस एक बात कही। दिल की बात कम ही लोग मान पाते हैं। दिमाग की बात तो हम फेल होने के बाद भी मान सकते हैं। मनीष से संपर्क मेरा कभी टूटा नहीं। और, मित्र से मिलने में प्रयोजन कैसा?

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  6. ब्लॉग बुलेटिन - बहुत बहुत धन्यवाद।

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  7. Shukla ji...yeh ek behtarin vritant hai. aapne shi kha h dimaag ki baat to hum fail hone pr bhi maan skte hai, par dil ki baat ko zarur sunana chahiye.(y)

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  8. Shukla ji, Yeh ek behtarin vritant h. Aapne shi kha hai hum dimaag ki baat fail hone k baad bhi maan skte hai, par hme dil ki baat ko bhi sunana chahiye, kahin na kahin sukun milta hai(y)

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