रविवार, 25 मार्च 2012

मैं एक अचंभा गाऊं, मैं मन के ठाठ सुनाऊं, जब कभी कभी ..

कैलाश खेर की गायिकी की दुनिया दीवानी है। उनके गाए अल्लाह के बंदे को संगीतकार ए आर रहमान तक अपना पसंदीदा गीत मानते हैं। उनके कैलासा बैंड ने पिछले आठ साल में दुनिया भर में 800 से ऊपर कंसर्ट किए हैं। वह नौजवानों में एक हौसला, एक विचार, एक संस्कृति पनपती देखना चाहते हैं। एक ऐसी परंपरा जिसमें देश सर्वोपरि हो। लेकिन, खुद कैलाश खेर को कितने लोग जानते हैं? कितने लोग जानते हैं उस बच्चे कैलाश के बारे में जो अपने पिताजी के साथ साइकिल के डंडे पर बैठकर गांव गांव गाने जाया करता था? और कितने जानते होंगे, उस युवा कैलाश के बारे में जिसने कभी ऋषिकेश में कर्मकांड सीखकर अमेरिका में पंडिताई को अपना करियर बनाने का फैसला किया था?

© पंकज शुक्ल

अपने बेटे कबीर को देखकर आपको बचपन तो खूब याद आता होगा?
कबीर की क्या कहें, मैं तो खुद अभी बचपन में ही हूं। मेरा तो शरीर बढ़ रहा है। मैं वैसा ही हूं भोला बचपन जैसा। बचपन ना हो तो मैं कुम्हला कैसे जाता? मैं तो दाता की कृपा मानता हूं कि मुझे उसने रोका हुआ है। मेरी यही प्रार्थना दिन रात रहती है कि मेरा बचपन न छीन लेना नहीं तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा क्योंकि कि ये दिमाग वालों की दुनिया में दिल वालों का जो खेल है वो बहुत भारी है। इस खेल में सच्चा आदमी टिक नहीं पाता।
किसी भी कलाकार के लिए जमीन से जुड़े रहना या विनम्र बने रहना कितना जरूरी है?
कलाकार? अरे कलाकार तो कितने हैं यहां। समुद्र है। मेरे तो ईश्वर ने मुझे अकस्मात एक ऐसे क्षेत्र में डाल दिया, जिसके बारे में मैंने कभी सोचा तक नहीं था। उन्होंने जैसे त्रिलोक दिखाए थे पार्वती को, वैसे ही मुझे दिखाया। जब मैं टूट चुका था। जब मैंने दुख से दुखी होना बंद कर दिया था। तब भगवान आए हैं मेरे लिए प्रेरणा पर। और ऋषिकेश से मैं सीध्ो यहां मुंबई आ गया। मुझे खुद पता नहीं कि मैं यहां क्यूं आया? फिल्मी दुनिया के बारे में एक अक्षर का ज्ञान तक नहीं था मुझे। ये तक ज्ञान नहीं कि आर डी बर्मन जैसे के गाने तो सुपरहिट हैं लेकिन वो हैं कौन से?
अच्छा? तो इसके चलते तो कभी गोटी भी फंसी होगी आपकी?
2006 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में शंकर महादेवन मुझे अपने साथ ले गए गोवा। वहां किसी चैनल वाले ने शो से पहले सवाल ही कर दिया कि दुनिया आर डी बर्मन की फैन है तो आप को उनका संगीत कैसा लगता है। मैंने कहा कि उनको फैन कौन नहीं है। तो रिपोर्टर ने कहा कि उनका कोई फेवरिट गाना जो आपको पसंद हो। मैं घबरा गया। मैंने कहा कि उनको तो कोई भी गाना आंख बंद करके ले लीजिए सारे ही फेवरिट हैं। तो रिपोर्टर ने कहा कि गाकर सुना दीजिए ना। अब मुझे लगा कि मैं फंस रहा हूं। मैंने देखा कोई आजू बाजू कोई खड़ा हो तो मैं पूछं कान में कि कोई जल्दी गाना बता भाई। फिर एकदम से भगवान याद आए।तो एकदम बुद्धि आई कि वही गाना जो शो में गाना है। शंकर ने बोल रखा था कि जै जै शिवशंकर गाना है। तो मैंने ये गाना गा दिया। किसी तरह बाबा ने बचा लिया। बाद में शान ने मुझसे बोला कि क्या वाकई आप आर डी बर्मन के किसी गाने के बारे में नहीं जानते। मैंने कहा कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो शायद गुफाओं में ही रहे हों जिंदगी की शायद।
यानी कि आपने कभी किसी को फॉलो नहीं किया?
होता यही है जो पढ़ाकू हैं। जो मेथड को फॉलो करते हैं। नियमों को, फॉर्मूलों को फॉलो करते हैं तो वो बस फॉर्मूले की ही दुनिया तक सीमित रह जाते हैं। नया वही रचेगा जो फॉर्मूलों के पार हो। उसको दाता रचता है। मैं ट्रेंड फॉलो नहीं करता। मैं ट्रेंड रचता हूं। मैं ये अपनी बड़ाई नहीं कर रहा लेकिन मैंने ये अनुभव किया है। साक्षीभाव और दृष्टा भाव से। मैं देख पाता हूं कि मुझे चीजें कभी कभी अपने आप हो जाती हैं। एमटीवी कोक कार्यक्रम के दौरान इसका बाकायदा अनुभव भी हुआ मुझे।
फिर तो इस रास्ते में तमाम अड़चनें भी आई होंगी?
सबसे पहली बात तो ये कि मैं किसी भी मुसीबत से डरता हूं नहीं। ये एक बहुत खतरनाक चीज हो जाती है जब आप डर से डरना बंद कर देते हैं और दुख से भागना बंद कर दें। तब दाता का सिंहासन डोलता है ऐसा मुझे लगता है। जितने साधकों की हमने कहानियां सुनी है उन सबने जिद करके ही दुनिया बदली है। कामयाबी और शोहरत देने से पहले ईश्वर तमाम मुश्किलें, तमाम अड़चनें खड़ी करता है। हमारे सामने मोह, माया और ना जाने कैसे कैसे जाल बिछाता है? उससे बच गए तो बस..फिर सबकुछ वही आपके लिए करता है।
लेकिन जैसी ये मायानगरी है, वहां तो सच्चे का बोलबाला कम ही हो पाता है?
ऐसा नहीं है। मैं यहां आया और यहां आने के बाद ही ये जीवन शुरू हुआ। तय हुआ कि मैं अलग करूंगा। अपने हिसाब से करूंगा। अपने ही गीत बनाउंगा। शब्दों का चयन भी अपना ही होगा। आमतौर पर जो शब्द किताबों और अखबारों में लिखे जाते हैं, उन्हें मैं नहीं लिखता। मैं भाषा में नहीं लिखता, मैं बोलियों में लिखता हूं। अगर आप आज की युवा दुनिया को ये चीजें उनके ही अंदाज में न पकड़ाएं तो कुछ दिनों बाद ये सब संग्रहालय में चली जाएंगी। जैसे मैंने एक गीत में लिखा चांदण में। तो इस शब्द को लेकर बहुत लोग अपना ज्ञान लगाते हैं। एक टीवी शो में एक बहुत बड़े विद्वान से बात हो गई तो हमने टोका कि नहीं ऐसा नहीं है।
तो कैलाश के कैलाश खेर बनने की शुरूआत कहां से होती है?
सबसे पहले पिताजी मेहर सिंह खेर एकतारे पर गाते थे। उस एकतारे की जो टोन थी वो हमको बहुतअच्छी लगती थी। वो तुंबे में बजता था। बनाते भी थे खुद। गाते भी थे खुद। कहीं से एक तार का जुगाड़ कर लिया। तुंबा मतलब जो सीताफल का निकलता है। पहले वो सूखा होता है। फिर उसे गीला करते हैं। उनके पास एक था एकतारा और एक था दुतारा। मेरे ताऊजी और पिताजी दोनों गाते थे। सत्संग करते थे। कबीर वाणी, मीरा को गाते थे। गुरुनानक को गाते थे। उनसे पूछो कि क्या गा रहे हो तो वो बता नहीं पाते थे। उन्होंने भी शायद सुना होगा दादा से परदादा से। और वो गांव का एक चलन भी है। मैंने तो देखा है कि पूरी दुनिया की लोक संस्कृति एक ही है। यूरोप जाओ। साउथ अफ्रीका जाओ। जो ये जिप्सी म्यूजिक बोलते हैं। कंट्री म्यूजिक वो सब जगह का एक ही जैसा होता है। मुझे गाने का शौक दो साल की उम्र से लगा। मैं गाने लगा। जब मैं गाता था तो सबसे ज्यादा तालियां मुझे ही मिलती थीं। पिताजी हमको साइकिल के डंडे पर बिठाके, कपड़ा बांध लेते थे, और ले जाते थे। तब सीट लगाने के भी पैसे नहीं थे। अरसे बाद फिर किसी तरह दया खाकर डेढ़ रुपये में पिजाती ने साइकिल के डंडे पर एक सीट लगवाई। हमें तो लगा कि बीएमडब्लू मिल गई। पहला वाद्य जो हमने छुआ तो वो पिताजी की एकतारा ही था। उससे अंगुली भी कट गई थी। वो निशान आज भी है।
दुनिया भर में घूमने के दौरान कोई तो लम्हा होगा जो भूलना चाहो तो भी नहीं भूलता?
हम अमेरिका गए थे गाने के लिए। एक बात बताऊं। अमेरिका में जितने भारतीय है उनमें से 99 फीसदी प्लास्टिक हो चुके है। भारत से या इसकी संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है उनका। वो वहां बैठते हैं, उनकी तारीफों के पुल बांधते हैं और यहां की बुराई करते हैं। तो शो के दौरान एक बुजुर्ग महिला आईं। अटलांटा की बात है। वे पैर छूने लगीं। हम न पैर छूते हैं और न छुआते हैं। हम दिल को छूते हैं। तो वो पैर छूने लगीं और मैं सकपकाकर पीछे हट गया। बाद में जब हम गा रहे थो तो वो स्टेज के पास एक कागज रख गईं। हमें लगा कि कोई रिक्वेस्ट होगी कि अल्ला के बंदे गा दो या रंग दींणी गा दो। लेकिन वो एक पत्र था जिसमें लिखा था, मेरे माता-पिता भारतीय हैं। मैं यहीं पैदा हुई और पली। लेकिन मुझे आपमें ईश्वर दिखता है। भारत दिखता है। सिर्फ आप लोगों के संगीत से ही हम यहां के मनहूस माहौल में हौसला रखते हैं। वो लम्हा मैं कभी नहीं भूल सकता और वो पत्र मेरे जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है।
इतनी शोहरत, इतनी दौलत और इतना प्यार पाने के बाद भी कोई सपना शेष है?
सच पूछिए तो इस ग्लैमर नगरी में तो मेरा कोई सपना ही नहीं था। यहां आने के बाद भी मेरा कोई उद्देश्य ही नहीं था। मेरे तो उद्देश्य था कि मैं ऋषिकेश में कर्मकांड सीखूंगा आचार्य की डिग्री लेकर अमेरिका चला जाऊंगा। किसी मंदिर में काम करूंगा। मेरे पिताजी ने जो काम किया है वहीं काम मैं थोड़ा अंग्रेजी बोल कर करूंगा। तब तो सर्ववाइल ऑफ द फिटेस्ट वाली मानसिकता में जी रहा था मैं। मेरे सपने बड़े होते तो मैं किसी हीरो को देखता उनको फॉलो करता। हीरोइनों को देखता। मुझे तो यहां के बारे में पता ही नहीं था। चित्रहार और विविध्ा भारती ही संगीत का इकलौता जरिया थे। और फिल्मों के बारे में आम आदमी जितनी जानकारी थी। मुझे तो जो अनुभव लगता है, वो ये कि अगर आपके सपने न हों तो ईश्वर आपके लिए सपने देखने लगता है। इस वक्त 15 करोड़ के घर में बैठे हैं हम। 10 साल भी नहीं हुए मुझे मुंबई आए। तो ये चमत्कार है। ये मेरे दाता कर रहे हैं। जैसे मेरा दो साल का बेटा कबीर मुझसे कुछ मांग नहीं रहा, लेकिन मैं उसके लिए कर रहा हूं। दूसरे लोग कर रहे हैं। तो वैसा ही रिश्ता मेरा मेरे ईश्वर के साथ है। मेरे लिए मेरे सपने मेरा ईश्वर देखता है।
और ऐसा कोई अनुभव जो आप अपने प्रशंसकों के साथ साझा करना चाहें?
ये जो मेरे नए अलबम रंगीले में बाबाजी गाना है, वो ऐसा ही एक अनुभव है। उसका मतलब यही है। जब मेरी पत्नी शीतल गर्भवती थी। छह महीने का गर्भ था उन दिनों और मेरी पत्नी कहा करती कि मुझे इतने ख्वाब आ रहे हैं आप क्यूं नहीं कुछ देख रहे हो। भगवान आपको सपने क्यूं नहीं दिखाते। मेरे मुंह से निकला, मैं सपना नहीं देखते। सपने मुझे देखते हैं। बस मुझे विचार मिला। रात के दो बजे मैं अपने रियाज के कमरे में भागा और रात के तीन बजे ये गाना तैयार किया,
मैं एक अचंभा गाऊं,
मैं मन के ठाठ सुनाऊं,
जब कभी कभी ।
ओ मेरे बाबाजी,
निहारें असमान से...


संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

मंगलवार, 20 मार्च 2012

कुछ कहता है ये सिनेमा.. !

सार्थक सिनेमा, समानांतर सिनेमा और इतर सिनेमा के बाद हिंदी सिनेमा में इन दिनों एक नया सिनेमा धीरे धीरे शक्ल लेने लगा है। ये है जमीनी सिनेमा। जी हां, वो सिनेमा जो हिंदुस्तान की जमीन से अपनी खुराक पाता है। हमारे आपके बीच से कहानियां उठाता है और उसे बिना किसी दिखावे या लाग लपेट के ज्यों का त्यों परदे पर परोस देता है। पान सिंह तोमर व कहानी की कामयाबी और आने वाली फिल्मों गैंग्स ऑफ वाशीपुर व मोहल्ला अस्सी के बहाने नए ज़मीनी सिनेमा के चलन पर एक टिप्पणी।

© पंकज शुक्ल

साल की शुरूआत में प्लेयर्स जैसी मल्टीस्टारर फिल्म को मिली नाकामयाबी और इधर पहले पान सिंह तोमर और फिर कहानी को दर्शकों से मिली वाहवाही से एक बात का संकेत साफ मिलता है और वो ये कि दर्शक अब मसाला फिल्मों के निर्माताओं के मायाजाल से निकलने को छटपटा रहे हैं। जमीन से जुड़ी कहानियों को मिल रहे अच्छे प्रतिसाद ने उन निर्माता निर्देशकों के भी हौसले बुलंद किए हैं जो विदेशी फिल्मों की नकल करने की बजाय अपने आसपास की कहानियों को परदे पर उतारने की परंपरा का पालन करते रहे हैं। पान सिंह तोमर और कहानी की कामयाबी का सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि भले विद्या बालन ने इस फिल्म के प्रचार के लिए एक गर्भवती महिला का स्वांग भरकर जबर्दस्त प्रचार किया हो लेकिन इस फिल्म के प्रचार में एक भी अभिनेता ने हिस्सा नहीं लिया। वहीं, पान सिंह तोमर के प्रचार के लिए इन दिनों फैशन बन चुके सिटी टूर तक नहीं हुए। इरफान चुपचाप अपनी पंजाबी फिल्म किस्सा की शूटिंग करते रहे और एक अच्छी फिल्म के बारे में लोगों को बताने का जिम्मा टि्वटर और फेसबुक पर मौजूद इरफान के प्रशंसकों ने संभाल लिया। दोनों फिल्मों की अच्छाइयां बताने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक अभियान सा छिड़ा दिखा और इन दोनों फिल्मों को हिंदी सिनेमा में कथानक की वापसी और स्टार सिस्टम की विदाई के तौर पर भी लोग देखने लगे हैं।

लोग अब सितारों से ज्यादा कहानियों पर ध्यान देने लगे हैं। विद्या बालन की फिल्मों ने दर्शकों के सोचने के नजरिए में इस तरह का बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है।-बिपाशा बसु, अभिनेत्री
पिछले दो तीन साल से जिस तरह धुआंधार प्रचार करके दबंग, रेडी और रा वन जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस से करोड़ों रुपये बटोरे हैं, उसके चलते दर्शकों को भी अब समझ में आने लगा है कि हर वो फिल्म जिसके प्रचार के लिए सितारे शहर शहर घूमे, अच्छी ही हो ये जरूरी नहीं। काठ की हांडी के एक बार ही आग पर चढ़ पाने की बात लोगों को पता थी लेकिन इसके बावजूद बीते चंद महीनों में दर्शकों को यूं छलने का क्रम जारी रहा। ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन कहते हैं, प्रचार करने के परंपरागत तरीकों में जोर फिल्म की कहानी का खुलासा करने के साथ साथ इसकी यूएसपी बताने पर रहा करता था। लेकिन, मौजूदा दौर में प्रचार के दौरान फिल्म के बारे में बातें कम होती हैं, और तमाम दूसरी चीजों के जरिए फिल्म के बारे में उत्सुकता जगाने पर फिल्म निर्माताओं की मेहनत ज्यादा होती है। इस फॉर्मूले ने कुछ एक औसत से हल्की फिल्मों के लिए काम भी किया, पर अब दर्शक भी उपभोक्ता की तरह सोचने लगा है। उसे बार बार बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता।

अब 14-15 साल का बच्चा भी फिल्मों की कहानियों की चोरी या संगीत की धुनों की चोरी पकड़ सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम अपनी तरह की फिल्में बनाएं।-विनय तिवारी, निर्माता, मोहल्ला अस्सी
फिल्म प्लेयर्स में मुख्य नायिका रहीं बिपाशा बसु भी विकास मोहन की बात से सहमत नजर आती हैं। वह कहती हैं, मुझे ये मानने में कतई गुरेज नहीं कि प्लेयर्स पूरी तरह फ्लॉप रही। हिंदी सिनेमा में एक बार फिर जमाना वर्ड ऑफ माउथ पब्लिसिटी का लौट आया है यानी फिल्म देखकर निकलने वाले दर्शक अगर फिल्म के बारे में अच्छी बातें करते हैं तभी इसका फायदा फिल्म को मिलता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के चलते इसकी अहमियत और भी ज्यादा बढ़ गई है। अब तो हर दर्शक फिल्म समीक्षक हो गया है, वह फिल्म देखकर निकलने के साथ ही उसके बारे में फेसबुक या टि्वटर पर टिप्पणी कर देता है और इसका असर होता है। इसका सार्थक पहलू ये है कि लोग अब सितारों से ज्यादा कहानियों पर ध्यान देने लगे हैं। विद्या बालन की फिल्मों ने भी दर्शकों के सोचने के नजरिए में इस तरह का बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है।


तो क्या पान सिंह तोमर और कहानी जैसी फिल्मों की कामयाबी की वजह से दर्शकों को अब बड़े परदे पर और भी लीक से इतर और ख़ालिस हिंदुस्तानी कहानियों पर बनी फिल्में देखने को मिलेंगी? जवाब देते हैं फिल्म निर्माता विनय तिवारी। वह कहते हैं, हिंदी सिनेमा को विदेशी सिनेमा की नकल करने की बहुत बुरी बीमारी रही है। इंटरनेट और सैटेलाइट टेलीविजन से ही इस कैंसर का इलाज मुमकिन था और ये अब हो भी रहा है। अब 14-15 साल का बच्चा भी फिल्मों की कहानियों की चोरी या संगीत की धुनों की चोरी पकड़ सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम अपनी तरह की फिल्में बनाएं। भारतीय सिनेमा को विदेशों में पहचान मदर इंडिया जैसी फिल्मों से ही मिली है और हिंदी साहित्य में ऐसा बहुत कुछ लिखा गया है जिस पर अच्छी हिंदी फिल्में बन सकती हैं। हमने साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी पर फिल्म बनाने का फैसला इसी क्रम में लिया। और, मुझे खुशी इस बात की सबसे ज्यादा है कि सनी देओल जैसे बड़े सितारे भी अब इस बात को समझ रहे हैं और इस तरह के प्रयासों का समर्थन करने के लिए आगे आ रहे हैं।

निर्माता विनय तिवारी की डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म मोहल्ला अस्सी को लेकर फिल्म जगत के अलावा युवाओं खासकर छात्रों में बेहद दिलचस्पी है। और, ऐसी ही दिलचस्पी लोग एक और जमीन से जुड़ी फिल्म गैंग्स ऑफ वाशीपुर को लेकर भी दिखा रहे हैं। निर्देशक अनुराग कश्यप की इस फिल्म की प्रेरणा भले एक अंग्रेजी फिल्म ही रही हो, पर भारत की दशा और दिशा में पिछले छह दशकों में आए बदलाव को कहने के लिए जिस तरह उन्होंने एक आम गैंगवार को कहानी को सूत्रधार बनाया है, वो काफी रोचक हो सकता है। अनुराग कश्यप फिलहाल इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ कहते नहीं हैं। हालांकि, इस फिल्म के निर्माण से जुड़े लोग इसे अनुराग के करियर की अब तक की सबसे महंगी और सबसे निर्णायक फिल्म बता रहे हैं। आमिर और नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक राजकुमार गुप्ता भले नाम कमाने के बाद अब पैसा कमाने के लिए घनचक्कर जैसी विशुद्ध मसाला कॉमेडी फिल्म बनाने की राह पर निकल गए हों, लेकिन पान सिंह तोमर के जरिए कामयाबी की नई ऊंचाई छूने वाले इरफान खान का नजरिया साफ है। वह कहते हैं, कहानी को सोचे और सीते बिना फिल्म बनाना अपने साथ बेईमानी है। और कोई भी काम बिना ईमानदारी के किया जाए तो ज्यादा दिन तक सुकून देता नहीं हैं। हम हिंदुस्तानी सदियों से भावनाओं में बहते आए हैं और ऐसे में अगर ये भावनाएं हमारे अपने बीच की हों तो हर आदमी का दिल ऐसी कहानियों के साथ हो ही लेता है।

संपर्क – pankajshuklaa@gmail.com

बुधवार, 14 मार्च 2012

... दूसरी बस पकड़ता तो इनकम टैक्स के छापे मार रहा होता-प्रीतम


हिंदी सिनेमा में निर्देशक फिल्म बनाने के लिए सुपर स्टार के चक्कर काटता है। सुपर स्टार फिल्म के लिए हां कहने से पहले फिल्म के प्रोड्यूसर का नाम जानना चाहता है और हर फिल्म प्रोड्यूसर अपनी फिल्म को हिट कराने के लिए प्रीतम का संगीत चाहता है। ताज्जुब होता है प्रीतम के दफ्तर में फिल्म निर्माताओं को उनके लिए दो दो घंटे इंतजार करते देखकर, ये वो प्रोड्यूसर हैं जिनके लिए दूसरे लोग उनके दफ्तर में घंटों इंतजार करते हैं। ये हैं प्रीतम चक्रवर्ती। हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर के चोटी के संगीतकार।

© पंकज शुक्ल

संगीतकार प्रीतम को तो दुनिया जानती हैं लेकिन कोलकाता के उस प्रीतम चक्रवर्ती को कैसे लगी संगीत की धुन जो कभी आईएएस पीसीएस की तैयारी किया करता था?
-सच पूछिए तो मुझे कभी पता नहीं था कि मैं कभी सिनेमा की दुनिया में भी आऊंगा। मिडिल क्लास फैमिली का लड़का था। स्कूल कॉलेज में बैंड वगैरह में गा बजा लेता था। लेकिन, संगीत निर्देशन? ना बाबा ना। सपने में भी नहीं सोचा था। जो कुछ अब तक होता गया बिना किसी प्लानिंग के होता गया। शायद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट पहुंचने के बाद ही मेरा ध्यान इस तरफ गया या कहें कि रुझान इस तरफ हुआ।

लेकिन पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट तो आप साउंड इंजीनियर बनने आए थे?
-हां, इसका भी दिलचस्प वाकया है। क्या है उन दिनों मैं अखबार में जो भी किसी कंपटीशन का विज्ञापन निकलता था, भर देता था। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट का विज्ञापन देखा तो साउंड इंजीनियरिंग का कोर्स ही मुझे कुछ समझ में आया। पापा को भी लगा कि लड़का इंजीनियर बनना चाहता है। उन्हीं दिनों सेंट्रल एक्साइज और इनकम टैक्स का भी विज्ञापन निकला। वो भी मैंने भरा था। तो मजे की बात देखिए दोनों का इम्तिहान एक ही दिन और एक ही वक्त होना था।

फिर कैसे तय हुआ कि पुणे इंस्टीट्यूट की लिखित परीक्षा ही देनी है?
-कुछ तय नहीं हुआ। और न ही कुछ तय कर पाने की मनोदशा थी मेरी। हमारे पड़ोस में एक इनकम टैक्स अफसर रहते थे। उनका रुआब ज़बर्दस्त था। तो घर से निकला तो सोचा कि इनकम टैक्स वाला टेस्ट ही देना चाहिए। बस स्टॉप आ गया। वहां भी टेंशन थी तो एक कप चाय पी। दिलचस्प बात देखिए कि दोनों परीक्षाओं के सेंटर को एक ही बस जाती थी। 240 नंबर की। साउथ की तरफ जो बस जाती थी उधर फिल्म इंस्टीट्यूट की परीक्षा वाला सेंटर था और नॉर्थ की तरफ जाने वाली बस के रूट में इनकम टैक्स वाला परीक्षा सेंटर था। मैंने तय किया कि जो बस पहले आएगी उसी में चढ़ जाऊंगा। पहली बस साउथ की तरफ जाने वाली आई और मैं संगीतकार बन गया। नहीं तो शायद कहीं इनकम टैक्स अफसर बनकर छापा मार रहा होता।

फिर पुणे में रहते हुए वहां की स्टूडेंट फिल्म का संगीत तैयार करना आपने शुरू किया और बन गए फिल्म संगीतकार?
-पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट ने मुझे बहुत कुछ दिया। तीसरे साल में ही मुझे एक सीरियल में संगीत देने का मौका मिला और मेरा मुंबई आना जाना शुरू हो गया। उम्र काफी कम थी और मन में होता था कि लोग थोड़ा बुद्धिजीवी समझें तो सिगरेट पीनी शुरू कर दी। ये लत मुझे वहां फर्स्ट ईयर से ही लग गई। सिगरेट शायद सामाजिक तौर पर थोड़ा स्वीकार्य नशा है इसलिए लड़के इसकी तरफ जल्दी आकर्षित होते हैं। लेकिन, इससे बुरा नशा भी कोई नहीं क्योंकि इसे छोड़ना बहुत मुश्किल होता है।

हिंदी सिनेमा में शोहरत के जिस मुकाम पर आप हैं, वहां पहुंचने के बाद तो किसी को भी किसी के ऐब पर एतराज़ नहीं होता, लेकिन फिर भी आपको सिगरेट छोड़े काफी अरसा हो चुका है?
-सिगरेट बहुत बुरी लत है। इसे छोड़ने की मेरी तमाम कोशिशें बेकार रही हैं। लेकिन कभी न कभी तो आपकी ये लत छोड़नी ही होती है। मैंने भी छोड़ी। कभी 15 दिन, कभी दो महीने लेकिन हर बार दोबारा शुरू हो जाती। फिर एक बार किसी ने मुझे कहा कि डॉक्टर बोले उससे पहले खुद छोड़ देनी चाहिए ये लत। कभी न कभी तो डॉक्टर ये बात बोलेगा ही। अभी नहीं तो हार्ट अटैक आने के बाद।

तो आपके लिए वो पल कब आया?
-मैं बांग्लादेश गया हुआ था एक शो के लिए। वहां मुझे ज़बर्दस्त खांसी हुई। इतनी ज़बर्दस्त कि मैं गा भी नहीं पाया। अगले दिन मैंने बिल्कुल सिगरेट नहीं पी। खांसी आने पर पहले भी दो चार बार में छोड़ चुका था। क्या है कि बीमारी में सिगरेट छोड़ना आसान होता है। तो इस बार मैं लौटा तो मुझे एक किताब पढ़ने को मिली। मेरी पत्नी को उसके जन्मदिन पर किसी ने कुछ किताबें दी थीं। उनमें ये किताब भी थी। कॉलिन जेम्स की ये पॉकेट बुक मेरे लिए वरदान साबित हुई। साल भर हो चुका है सिगरेट छोड़े। लेकिन लोग ये भी कहते हैं कि सिगरेट छोड़ने के लिए कम से कम सात साल चाहिए होते हैं। मैं बस ये प्रार्थना करता हूं कि ये लत दोबारा न लगे।

तो अपने प्रशंसकों खासकर युवाओं को क्या कहना चाहते हैं?
-जिस किताब की बात मैं कर रहा हूं, उसमें एक जगह ये बात लिखी है। किसी भी नशे को दोबारा शुरू करने के तमाम कारण होते हैं। कभी होता है कि चलो आज दोस्तों की पार्टी है, एक कश लगा लिया जाए। या कि आज मुझे बहुत तनाव है चलो एक सिगरेट पी लेता हूं। या कि जिस लड़की के लिए मैंने ये नशा छोड़ा वो तो अब मेरे साथ है नहीं तो क्यों ना दोबारा शुरू कर लिया जाए। मेरा कहना है कि आपको अपना आत्मविश्वास बनाए रखना है। आप नहीं चाहोगे तो आपको कोई लत लगेगी नहीं।

आपको नहीं लगता कि तंबाकू का इतना विरोध करने पर तंबाकू लॉबी आपके पीछे लग जाएगी? वो तो सार्वजनिक जगहों पर सिर्फ सिगरेट हाथ में पकड़े रहने के लिए सितारों को लाखों देती है?
-(ठहाका लगाकर हंसते हुए) यही तो खेल है सारा..।

(संडे नई दुनिया 11 मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित)

रविवार, 4 मार्च 2012

हवाला की रकम से बनीं उड़ान और तनु वेड्स मनु?

मुंबई कांग्रेस के दबंग नेता रहे कृपाशंकर सिंह के बेटे नरेंद्र मोहन ने पहले हिंदी सिनेमा में बतौर हीरो एंट्री करने की कोशिश की तो निर्देशकों ने उसे दुत्कार दिया। फिर, उसने पैसे का ज़ोर दिखाया तो बड़े बड़े निर्देशक उसके आगे पीछे डोलने लगे। लेकिन, जब से बंबई हाईकोर्ट का निर्देश आया है, हिंदी सिनेमा के तमाम लोग उस शख्स के बारे में खबरें तलाशते रहे हैं जो उनसे कृपाशंकर के बेटे के तौर पर मिला तो करता था लेकिन अपना नाम संजय सिंह बताता था। असलियत खुली तो लोग सवाल ये पूछने लगे कि क्या उड़ान और तनु वेड्स मनु जैसी अतिचर्चित फिल्मों में कृपाशंकर के बेटे ने जो पैसा लगाया, वो उन्हीं खातों से आया जिनके बारे में बंबई हाईकोर्ट ने हवाला के लेने देन में शामिल होने का शक़ जताया है?

© पंकज शुक्ल

बंबई उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद मुंबई पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक के सीधे निशाने पर आए मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह के बेटे नरेंद्र मोहन सिंह के चारों तरफ कानून का घेरा तेजी से कसता जा रहा है। कभी हिंदी फिल्मों में हीरो बनने के लिए कोरियोग्राफर बॉस्को के साथ फिल्म निर्देशकों के दफ्तरों के चक्कर काटने वाले नरेंद्र मोहन सिंह को हिंदी सिनेमा के लोग अब भी संजय सिंह के नाम से ही जानते हैं। भवन निर्माण कारोबार में नरेंद्र मोहन के नाम से और फिल्म कारोबार में संजय सिंह के नाम से काम करने की जरूरत इस दबंग कांग्रेस नेता के बेटे को क्यूं पड़ी? इस सवाल को लेकर मुंबई पुलिस भी गोल गोल घूम रही है।

पुलिस सूत्र बताते हैं कि नरेंद्र मोहन सिंह को संजय सिंह के तौर पर फिल्म जगत में स्थापित करने में एक बड़े और नामचीन फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप का बड़ा हाथ रहा है। इस निर्देशक की फिल्म देव डी के वेनिस फिल्म फेस्टिवल में हुए प्रीमियर के दौरान ही लोगों ने पहली बार संजय सिंह का नाम सुना और इसके अगले ही साल संजय सिंह और इस निर्देशक ने मिलकर एक चर्चित फिल्म उड़ान बनाई जो कान फिल्म समारोह तक जा पहुंची। इस फिल्म की तथाकथित कामयाबी के प्रचार प्रसार पर लाखों रुपये बहाये गए, जबकि फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सूत्रों के मुताबिक फिल्म कारोबार के लिहाज से ज्यादा कामयाब नहीं रही। संजय सिंह का प्रोडक्शन हाउस संजय सिंह फिल्म्स के नाम से काम करता है और दो सफल फिल्मों उड़ान व तनु वेड्स मनु में संजय सिंह फिल्म्स का पैसा लगा होने का दावा खुद उनके इस प्रोडक्शन हाउस की वेबसाइट करती है। सूत्र ये भी बताते हैं कि फिल्म तनु वेड्स मनु में संजय सिंह का और इस फिल्म को शुरू करने वाले निर्माता का पैसे के लेन देन को लेकर झगड़ा भी हुआ और बाद में ये विवाद निर्माताओं की संस्था तक भी पहुंचा।

पुलिस के पास जानकारी ये भी है कि संजय सिंह फिल्म्स का कारोबार तकरीबन उसी दौरान खड़ा होना शुरू हुआ जब कृपाशंकर सिंह के बेटे नरेंद्र मोहन के बैंक खातों में ताबड़तोड़ पैसे जमा कराए जा रहे थे। इधर नरेंद्र मोहन बतौर संजय सिंह बड़े सितारों से मिल रहे थे और उधर 500 रुपये जमा करके खोले गए उनके खातों में दो साल के भीतर 60 करोड़ रुपये जमा हो गए। नरेंद्र मोहन सिंह की आय के ज्ञात स्रोतों से कहीं ज्यादा इस रकम के हवाला कारोबार से इकट्ठा होने की आशंका बंबई उच्च न्यायालय अपने निर्देश में जता भी चुका है। प्रवर्तन निदेशालय को इसकी जांच भी सौंपी जा चुकी है। सूत्र बताते हैं कि संजय सिंह की मंशा एक बड़े खान सितारे को लेकर अपने दोस्त निर्देशक के साथ एक बड़ी फिल्म बनाने की थी लेकिन इस खान सितारे ने तब तक वो फिल्म साइन कर ली थी जिसमें वह जल्द ही एक पुलिस अफसर के किरदार में नजर आने वाला है।

बात बिगड़ने के बाद संजय सिंह और ये निर्देशक अलग अलग हो गए। वैसे अनुराग का कहना है कि उन दोनों में अलगाव फिल्म उड़ान की कामयाबी के क्रेडिट को लेकर हुआ। उनका ये भी कहना है कि अपनी पहली बीवी द्वारा घर से निकाले जाने के बाद संजय सिंह ने उन्हें बांद्रा में रहने को जगह दी और तब से लेकर अब तक उन्हें कभी ये नहीं मालूम पड़ा कि संजय सिंह का नाम नरेंद्र मोहन सिंह भी है। अनुराग कहते हैं कि संजय सिंह और उनके रिश्ते 2006 से लेकर 2010 तक रहे और उसके बाद से दोनों में दुआ सलाम बंद है। फिल्म बनाने के लिए संजय सिंह से कर्ज लेने की बात भी इस फिल्म निर्देशक ने मानी और इसे वापस करने की बात भी स्वीकार की। हालांकि, ये बताने से वह आखिर तक परहेज करते रहे कि आखिर जो कर्ज उन्हें मिला, वो नकद था या चेक से। और अगर चेक से मिला तो फिर उस पर दस्तखत किसके थे? नरेंद्र मोहन सिंह के या संजय सिंह के? वह यह भी कहते हैं कि एक फिल्ममेकर के नाते उनका ध्यान फिल्म बनाने पर रहता है और फिल्म बनाने का पैसा किन स्रोतों से आ रहा है, इस पर अक्सर निर्देशकों का ध्यान कम ही जाता है। संजय सिंह को अपने बूते कामयाबी पाने वाला इंसान बताते हुए अनुराग ने ये भी कहा कि संजय सिंह न होते तो उड़ान बन नहीं पाती। उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोहन सिंह के पिता कृपाशंकर सिंह भी आयकर अधिकारियों को अपने पास दो पैन कार्ड होने की सफाई दे चुके हैं। इस बारे में बात किए जाने पर मुंबई पुलिस के प्रवक्ता डीसीपी निसार तंबोली ने कहा कि इस पूरे मामले की जांच खुद मुंबई पुलिस कमिश्नर की निगरानी में हो रही है और फिलहाल उनकी तरफ से कोई बयान अभी तक इस बारे में जारी नहीं हुआ है।

संडे नई दुनिया के 4 मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित।