शनिवार, 26 नवंबर 2011

मैं बच्चा बनके फिर से रोना चाहता हूं..


के अपनी बदगुमानियों से उकता गया हूं,
मैं बच्चा बनके फिर से रोना चाहता हूं।

न हमराह न हमराज़ इन गलियों में लेकिन,
मैं इस शहर में अपना एक कोना चाहता हूं।

सुकूं आराम की मोहलत के कैसी ये क़ज़ा* है,
मैं अपनी मां के आंचल सा बिछौना चाहता हूं।

के यूं ख्वाहिश जगी दाग़ औ कीचड़ के फाहों की,
मैं बच्चा बनके राह गलियारों में सोना चाहता हूं।

सिसकना सब्र से ईमां का अब होता नहीं रक़ीब*,
ना बन दस्त ए गिरह रफ़ीक*, मैं खोना चाहता हूं।

मुसल्लम ए ईमां हूं क़ाफिर की सज़ा पाई है,
अब बोसा* ए संग ए असवद* भी धोना चाहता हूं.. (पंशु.)



क़ज़ा- मौत। रक़ीब - दुश्मन। रफ़ीक - दोस्त।
बोसा - चुंबन। संग ए असवद - मक्का का पवित्र पत्थर।

7 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार ग़ज़ल.
    कुछ रचनाकार rachanakar.org के लिए भी भेजें.

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  2. शुक्रिया रविशंकर जी। आप चाहें तो इसका प्रकाशन यथोचित लेखन श्रेय देते हुए अपने पोर्टल पर सकते हैं।

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  3. आभार..वंदना जी। यूं ही स्नेह बनाए रखिए।

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  4. शुक्रिया संगीता जी..आपकी तारीफ मेरा हौसला बढ़ाती है।

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