शनिवार, 15 मई 2010

महाराष्ट्र की सियाती शतरंज पर अब ‘ख़ाकी’ की बिसात

मुंबई। आईपीएल मैचों में मनोरंजन कर के मुद्दे पर महाराष्ट्र की सियासी शतरंज में अपनी गोटी पिटवा चुकी एनसीपी अब नई बिसात बिछा रही है। ये बिसात है अपने चहेते अफसर को मुंबई पुलिस कमिश्नर बनाने की और इस बिसात पर एनसीपी का खेल बिगाड़ने के लिए कांग्रेस खुलकर मैदान में उतर चुकी है। पुणे के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह पुलिस विभाग में अगले महीने की शुरुआत में होने वाले फेरबदल में मुंबई पुलिस कमिश्नर बनने की रेस में सबसे आगे बताए जाते हैं। वहीं, गृह राज्य मंत्री और कांग्रेस विधायक रमेश बागवे ने पुणे पुलिस की कार्यशैली की सीआईडी जांच कराने की मांग करके अपने ही सीनियर यानी राज्य के गृह मंत्री आर आर पाटिल को धर्मसंकट में डाल दिया है।

कांग्रेस और एनसीपी के बीच महाराष्ट्र में चल रहे शह और मात के मुकाबले में इस बार ख़ाकी पर खेल होने जा रहा है। और, इसकी शुरुआत भीतरखाने हो भी हो चुकी है। इस खेल का पहला मोहरा चला जाएगा 31 मई को, जिस दिन महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक ए एन राय रिटायर होंगे। माना ये जा रहा है कि राय के उत्तराधिकारी के रूप में राज्य के दूसरे सबसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हसन ग़फूर की तैनाती होगी, जो इस वक्त एंटी करप्शन ब्यूरो के पुलिस महानिदेशक हैं। महाराष्ट्र में पुलिस महानिदेशक स्तर के तीन पद हैं, इनमें तीसरा पद है पुलिस महानिदेशक हाउसिंग का। गफूर के डीजीपी महाराष्ट्र बनने के बाद खाली हुए पद पर मुबंई के मौजूदा पुलिस कमिश्नर डी शिवनंदन की तैनाती हो सकती है, जिनके एडीजी से डीजी के लिए प्रमोशन में अब महीने भर से भी कम का वक्त बचा है।

ख़ाकी पर सियासत का असली खेल इसके साथ ही शुरू होता है। डी शिवनंदन का प्रमोशन होते ही अपनी पसंद का मुंबई पुलिस कमिश्नर लाने की कोशिशें कांग्रेस और एनसीपी दोनों में जारी हैं। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने हालांकि अभी इस बारे में अपनी कोई राय नहीं बनाई है और वह मुख्य सचिव जे पी डांगे की अध्यक्षता में गठित पैनल की उस रिपोर्ट के इंतज़ार में हैं जिसमें महाराष्ट्र के नए डीजीपी के चयन के बारे में सिफारिशें की जाएंगी।

राय के रिटायर होने और शिवनंदन के प्रमोशन के बाद मुंबई पुलिस कमिश्नर बनने की दौड़ में वरिष्ठता के लिहाज से पांच आईपीएस अफसर हैं। इनमें एसआरपीएफ चीफ अजित परसनिस, स्पेशल ऑपरेशन चीफ संजीव दयाल, सीआईडी चीफ एस पी एस यादव, पुणे के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह और एडीजी ट्रैफिक अरुप पटनायक शामिल हैं। इनमें से पुणे के पुलिस कमिश्नर को मुंबई का पुलिस कमिश्नर न बनने देने की कांग्रेस का एक धड़ा पूरी कोशिश कर रहा है। गृह राज्य मंत्री रमेश बागवे के पासपोर्ट प्रकरण ने इस मामले में आग में घी डालने का काम किया है। पुणे में पुलिस चौकियों को बंद किए जाने के मुद्दे पर आमने सामने रहे बागवे और सत्यपाल सिंह की अनबन के पीछे बागवे का पासपोर्ट ही है, जिसे पुणे पुलिस की रिपोर्ट के बाद पासपोर्ट दफ्तर ने रिन्यू नहीं किया।

अब सत्यपाल सिंह ने दो कदम पीछे जाते हुए पुणे की सभी बंद की गई पुलिस चौकियों को फिर से खोलने का आदेश जारी कर दिया है। सियासी जानकार इसे गृह राज्य मंत्री का अहम संतुष्ट करने की कार्यवाही बता रहे हैं, लेकिन बागवे किसी भी सूरत में पुणे पुलिस कमिश्नर को माफ करने के मूड में नहीं है। इधर पुणे पुलिस कमिश्नर बागवे की लंबे समय से चली आ रही पुलिस चौकियों को फिर से चालू करने की ज़िद पूरी कर रहे थे, उधर बागवे मीडिया के सामने पुणे पुलिस की कार्यप्रणाली की जांच सीआईडी से कराने की मांग कर रहे थे। बागवे इसके पहले भी अपने सीनियर यानी गृह मंत्री आर आर पाटिल को परेशानी में डाल चुके हैं, जब उन्होंने पिछले महीने पुणे पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह के तबादले का अपनी मर्जी से ऐलान करके पूरी सरकार को हैरानी में डाल दिया था।

पंकज शुक्ल। नई दुनिया, नई दिल्ली में 15 मई 2010 को प्रकाशित)


गुरुवार, 13 मई 2010

डेढ़ हज़ार किताबों का वजन बस 300 ग्राम !!!

मुंबई। अगर 70 के दशक में हिंदी सिनेमा के सबसे बहुचर्चित डॉयलॉग मेरे पास मां है की तर्ज पर कहें तो इन दिनों हिंदी सिनेमा के सितारे एक नई चीज़ पर इतरा रहे हैं। वो शान से कहते हैं – मेरे पास किंडल है। बॉक्स ऑफिस के बादशाह शाहरुख खान इसके बिना घर से बाहर नहीं निकलते और जब भी फुर्सत में होते हैं तो बस उनकी आंखें इसी पर टिकी रहती हैं। अगर शाहरुख खान के करीबियों की भाषा में कहें तो शाहरुख खान को किंडल से प्यार हो गया है। इन दिनों शाहरुख की पत्नी गौरी विदेश दौरे पर हैं और शाहरुख शूटिंग के बाद ज़्यादतर वक़्त या तो बच्चों के साथ बिताते हैं या फिर किंडल के साथ।

किंडल क्या है, इसे तफसील से समझने से पहले ये भी जान लीजिए कि शाहरुख खान आखिर बिना गौरी के कैसा महसूस कर रहे हैं। अपने चाहने वालों के साथ मंगलवार को ट्विटर पर करीब दस मिनट तक लगातार घुलते मिलते रहे शाहरुख ने कहा कि वो आज़ाद महसूस कर रहे हैं और वे सारी चीज़ें करने जा रहे हैं, जिस पर गौरी के चलते पाबंदी रहती है। उन्होंने इस दौरान ये राज़ भी खोला कि गौरी से उनकी मुलाकात उन स्कूल पार्टियों के दौरान हुई जिनमें लड़के और लड़कियां अलग अलग कोनों में बैठे रहते थे और फिर किसी लड़की से साथ में नाचने की फरमाइश करते थे। गौरी को उन्होंने अपनी मां की पसंद भी बताया। फुर्सत मिलते ही शाहरुख एक क़िताब भी पूरी करना चाहते हैं, जिसे वह काफी दिनों से लिख रहे हैं, लेकिन उन्हें अफसोस है कि अक्सर दूसरे कामों में व्यस्त हो जाने के कारण वह इसके लिए समय नहीं निकाल पाते। इस दौरान एक सवाल के जवाब में शाहरुख ने ये भी कहा कि सियासत उन्हें समझ नहीं आती।

अपने प्रशंसकों से बातचीत के दौरान शाहरुख ने इस बात पर भी अफसोस जताया कि पूरा देश ट्वेंटी 20 के खुमार में है और किसी ने इस बात की भी परवाह नहीं कि भारतीय हॉकी टीम अजलान शाह कप में कितना उम्दा खेल दिखा रही है। कभी धुंआधार सिगरेट पीने वाले शाहरुख ने अपने चाहने वालों के बीच इस बात से भी इनकार किया कि इसके चलते उन्हें अपने फेफड़ों का ऑपरेशन कराना पड़ा है।

क्या है किंडल?

और अब बात किंडल की। किंडल दरअसल 21वीं सदी के तकनीकी चमत्कारों में जुड़ी एक नई कड़ी है। किंडल एक तिहाई इंच से पतली एक मैगज़ीन की तरह है, जिसका वजन एक आम किताब से भी काफी कम होता है। आकार है 6 इंच से लेकर करीब 10 इंच तक और वजन महज तीन सौ ग्राम। तेज़ी से डिजिटल होती दुनिया में इसका इस्तेमाल आने वाले दिनों में हर वो शख्स करता नज़र आ सकता है जिसे किताबों से प्यार है। स्कूलों में ये बच्चों को भारी भरकम बस्तों से निजात दिला सकता है क्योंकि इसमें एक बार में आप डेढ़ हज़ार से लेकर साढ़े तीन हज़ार तक किताबें स्टोर कर सकते हैं।

सबसे बड़ी खूबी

किंडल की सबसे बड़ी खूबी है, इसका हमेशा ऑन लाइन रहना। इसके लिए आपको ना तो अलग से कोई इंटरनेट कनेक्शन लेने की ज़रूरत है और ना ही कोई मासिक या वार्षिक शुल्क देना है। आप दुनिया में कहीं भी जाएं, ये उपकरण 3 जी तकनीक से हमेशा अपने मदर सर्वर से जुड़ा रहता है। आप को जो भी किताब पढ़नी हो, बस उसे सेलेक्ट करना है और 60 सेकंड में ये किताब आपके किंडल पर डाउनलोड हो जाएगी। इसकी जो खूबी इसे लैप टॉप या पाम टॉप से भी बेहतर बनाती है वो है इसे किसी क़ागज़ की पत्रिका की तरह पढ़े जाने की खूबी। जी हां, इसमें किसी भी तरह की चमक नहीं होती है और तेज़ रोशनी में भी इसका आंखों पर कोई असर नहीं पड़ता। इसे एक बार चार्ज करने के बाद आप पूरे एक हफ्ते तक लगातार किताबें पढ़ सकते हैं और ज़रूरत होने पर अपने ज़रूरी डॉक्यूमेंट्स भी पीडीएफ फॉर्मेट में इसमें ले जा सकते हैं।

पढ़िए मनपसंद पुस्तकें

फिलहाल 5 लाख नई किताबों वाले इसके सर्वर पर रोज़ाना नई किताबें और पत्रिकाएं जुड़ रही हैं। वैसे अगर बिना कॉपी राइट वाली किताबों की बात की जाए तो 1923 से पहले प्रकाशित हुई करीब 18 लाख किताबें इस पर मुफ्त में पढ़ने के लिए मौजूद हैं। और, अगर आप अपनी आंखों को आराम देना चाहते हैं तो किंडल आपको आपकी मनपसंदीदा किताब पढ़कर भी सुना सकता है।

कितनी है कीमत?

और रही बात कीमत की तो ये आपके लेटेस्ट मोबाइल की कीमत के ही करीब है। किंडल का बेसिक मॉडल जहां करीब 13 हज़ार रुपये का है वहीं इसके डीलक्स मॉडल की कीमत है करीब 25 हज़ार रुपये। कीमत का ये फर्क इसकी स्टोरेज क्षमता और स्क्रीन के आकार को लेकर है।

शनिवार, 8 मई 2010

पटकथा लेखन में मुंबई की दीप मंजुरी विजेता

पत्रकार-फिल्म मेकर पंकज शुक्ल ने अपनी अगली शॉर्ट फिल्म के लिए पटकथा का चयन कर लिया है। इस प्रतियोगिता की विजेता रहीं- मुंबई की दीप मंजुरी दास। इन्हें पुरस्कार स्वरूप 11 हज़ार रुपये की राशि प्रदान की जाएगी।

दीप मंजुरी ने बैंगलोर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में बी.ए. करने के बाद कॉमिट्स बैंगलोर से ऑडियो विजुअल कम्यूनिकेशन में ए.एम की पढ़ाई की। फिल्म मेकिंग और पटकथा लेखन में दिलचस्पी रखने वाली दीप मंजुरी इन दिनों फिल्म निर्देशन में हाथ आजमा रही हैं। निर्देशकों रोहित जय सिंह वैद और प्रवीन कुमार की आने वाली फिल्मों में सहायक निर्देशक का काम कर रहीं दीप मंजुरी को दो साल पहले दुबई मीडिया सिटी में हुए आईबीडीए पुरस्कारों के तरह रेडियो फीचर श्रेणी में पुरस्कृत किया गया था।

इस वेबसाइट पर पटकथा प्रतियोगिता का ऐलान होने के बाद पचास से अधिक लोगों ने पटकथा लिखने में दिलचस्पी दिखाई और इसका कथा सार जानने के लिए मेल भेजे। इनमें से करीब 20 लोगों ने पटकथा लिखने की कोशिश भी की और अपनी प्रविष्टियां पंकज शुक्ल को भेजीं। शॉर्ट फिल्म की पटकथा लिखने के लिए मांगी गई प्रविष्टियों को लेकर पत्रकारों, लेखकों और ब्लॉगर्स ने ज़बर्दस्त उत्साह दिखाया।

पंकज शुक्ल के मुताबिक इस शॉर्ट फिल्म की शूटिंग जल्द ही शुरू की जाएगी। फिल्म के निर्माता एनआरआई बिज़नेसमैन इरफान इज़हार हैं, जो छात्र नेता चंद्रशेखर प्रसाद के जीवन से जुड़ी घटनाओं पर बनने जा रही फिल्म चंदू के भी निर्माता हैं। फिल्म चंदू के क्रिएटिव कंसलटेंट मशहूर फिल्म मेकर महेश भट्ट हैं, और इस फिल्म में लीड रोल के लिए दिल्ली के ही उभरते कलाकार इमरान ज़ाहिद का चयन किया गया। उल्लेखनीय है कि इमरान ज़ाहिद को अभिनय का पहला मौका पंकज शुक्ल ने ही अपनी शॉर्ट फिल्म लक्ष्मी में दिया था। ये फिल्म इटली में सितंबर में होने जा रहे कॉस इंटरनेशन फिल्म फेस्टिवल में आमंत्रित की गई है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

निकम की बहस से 30 से ज़्यादा बार टूटी जजों की कलम

 फांसी जल्द से जल्द दिए जाने के हिमायती हैं उज्जवल निकम
 संवेदनशील मामलों में शामिल होने के चलते ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा


मुंबई। पाकिस्तानी आतंकवादी अजलम कसाब को फांसी की सज़ा सुनाए जाने के साथ ही विशेष सरकारी वकील उज्जवल निकम की बहस के चलते फांसी के फंदे की तरफ बढ़ने वालों में एक और गुनहगार का इज़ाफ़ा हो गया। निकम देश के इकलौते ऐसे वक़ील हैं, जिनकी बहस के चलते अब तक 30 से ज़्यादा लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है और करीब सात सौ लोगों को उम्र कैद हुई।
जिन दूसरे चर्चित मुकदमों में निकम ने सरकारी के वक़ील के तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें 1993 के मुंबई बम धमाके, गुलशन कुमार मर्डर केस, प्रमोद महाजन हत्याकांड, 2003 के गेटवे ऑफ इंडिया पर हुए बम धमाके, खैरलांजी सामूहिक हत्याकांड, नदीम प्रत्यर्पण मामला और पुणे का बहुचर्चित राठी हत्याकांड शामिल हैं। ये अलग बात है कि निकम की बहस के चलते फांसी की सज़ा पाए ज़्यादातर दोषी अब भी जेल की सलाखों के पीछे हैं। फांसी की सज़ा पाए लोगों को सुप्रीम कोर्ट से पुष्टि के बाद जल्दी से जल्दी फंदे तक पहुंचाने के समर्थक रहे उज्जवल निकम कई मौकों पर क्षमा याचिकाओं के निपटारे में में लगने वाले समय पर अपनी राय ज़ाहिर करते रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि देश में 2004 के बाद से किसी को फांसी नहीं दी गई है और 1988 के बाद से अब तक केवल दो लोग फांसी पर लटकाए गए हैं।
महाराष्ट्र के जलगांव में वकील देवराव निकम के घर 30 मार्च 1953 को जन्मे उज्जवल निकम ने शुरुआती पढ़ाई विज्ञान के छात्र के रूप में की, लेकिन बीएससी करने के बाद उनका रुझान वक़ालत की तरफ हो गया। जलगांव के ही एस एस मनियार कॉलेज से कानून की पढ़ाई करने के बाद वो वकील बने और सबसे पहले जलगांव में ही सरकारी वकील बने।
निकम को अपने करियर का पहला बड़ा मौका 1994 में मिला जब मुंबई बम धमाकों के लिए टाडा कानून के तहत एक विशेष कोर्ट की स्थापना की गई और 12 मार्च 1993 में हुए बम धमाकों में बहस के लिए उन्हें सरकारी वकील के तौर पर नियुक्त किया गया। इन बम धमाकों में 129 आरोपितों में से 100 दोषी पाए गए और उन्हें सज़ा सुनाई गई। गुलशन कुमार और प्रमोद महाजन हत्याकांड में दोषियों को सज़ा दिलवाने के अलावा निकम को खैरलांजी हत्याकांड में 6 लोगों को फांसी की सज़ा दिलवाने में भी कामयाबी मिली। 2006 के इस मामले में खैरलांजी के एक दलित परिवार को पीट पीट कर मार डाला गया था।
तमाम संवेदनशील मामलों में सरकारी वकील होने की वजह से उज्जवल निकम को ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है और हाल तक मुकदमों की बहस के लिए वह जलगांव से ही मुंबई आते जाते रहे। बाद में मुख्यमंत्री कोटे से उन्हें मुंबई के वर्सोवा में म्हाडा का फ्लैट आवंटित किया गया। अपनी कार्यशैली के बूते आम लोगों के बीच नायक बनकर उभरे उज्जवल निकम को अब तक सरकारी-गैर सरकारी करीब 65 पुरस्कार मिल चुके हैं।
सरकारी वकील के तौर पर अपने करियर में उज्जवल निकम को शुरुआती दिनों में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। निकम तब अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाते थे और इसके चलते लोग उनकी खिल्ली भी उड़ाया करते थे। निकम को वो दिन भी याद है जब मुंबई बम धमाकों की पहली सुनवाई के दिन देश विदेश के करीब सौ टीवी चैनलों के संवाददाताओं ने उनसे सवाल पूछे, उस दिन को निकम अपने जीवन का सबसे यादगार दिन मानते हैं।
वक़ालत के पेशे में कामयाबी की बेमिसाल ऊंचाइयां हासिल कर चुके उज्जवल निकम ने बीच में वक़ालत छोड़ने की भी इच्छा जताई थी, तब ये माना जा रहा था कि शायद निकम राजनीति में आएंगे। लेकिन, अभी तक उज्जवल निकम ने इस बारे में सार्वजनिक तौर से कुछ नहीं कहा है। दो बच्चों के पिता उज्जवल निकम लगातार सफर करते रहने की वजह से पेट की तमाम बीमारियों का शिकार हुए और अब वो जहां भी जाते हैं घर का पिसा आटा साथ लेकर जाते हैं। होटल में रुकने पर वो इसी आटे की चपातियां बनवाकर खाते हैं।
सुबह चार बजे उठने वाले उज्जवल निकम अब भी सुबह दो घंटे व्यायाम करते हैं और फिर दस बजे तक मुकदमों से संबंधित फाइलें पढ़ते हैं। निकम ने टेलीविजन देखने का अधिकतम समय दो घंटे तय कर रखा है और वो भी सम सामयिक घटनाओं से खुद को वाकिफ़ रखने के लिए। निकम सुबह अख़बार नहीं पढ़ते। अपनी व्यस्त दिनचर्या के चलते वो इसके लिए शाम को ही समय निकाल पाते हैं। लेट नाइट पार्टियों में जाने से उन्हें शुरू से ही परहेज़ रहा। मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर एम एन सिंह का वह आज भी एहसान मानते हैं, जिन्होंने उनकी काबिलियत परख कर उन्हें मुंबई बम धमाकों के मुकदमे में सरकार की तरफ से पैरवी करने के लिए जलगांव से मुंबई बुलाया।

गुरुवार, 6 मई 2010

‘नदिया के पार’ के निर्देशक गोविंद मूनिस नहीं रहे


मुंबई। फिल्म फेयर पुरस्कार विजेता और सुपर डुपर हिट फिल्म नदिया के पार के निर्देशक गोविंद मूनिस का कल शाम निधन हो गया। वह 81 वर्ष के थे और कुछ समय से गले के कैंसर से पीड़ित थे।
दो जनवरी 1929 को उत्तर प्रदेश के ज़िले उन्नाव के गांव पासाखेड़ा में पंडित श्रीराम द्विवेदी के घर जन्मे गोविंद मूनिस की पढ़ाई कानपुर में हुई और यहीं 1947 में दैनिक नवभारत में पहली कहानी छपने पर उन्हें किस्से कहानियां लिखने का चस्का लगा। इसके बाद उन्होंने तमाम अनुवाद किए, लेख, कहानियां लिखीं और फिर अप्रैल 1952 में कलकत्ता चले गए। शुरुआत में मशहूर निर्देशक ऋत्विक घटक का शागिर्द बनने के बाद उनके हुनर को निखारा निर्देशक सत्येन बोस ने। 1953 में बंबई आने के बाद मूनिस ने सत्येन बोस की तकरीबन सभी फिल्मों में उनका साथ दिया, कभी सहायक निर्देशक के तौर पर तो कभी पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर। ज़रूरत पड़ने पर उन्होंने गीत भी लिखे। फिल्म “दोस्ती” के लिए गोविंद मूनिस को सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था।
अपने करियर का सबसे बड़ा मौका मूनिस को दिया राजश्री प्रोडक्शन्स ने फिल्म “नदिया के पार” में। इसके पहले वह हालांकि “मितवा” निर्देशत कर चुके थे, लेकिन “नदिया के पार” ने उन्हें सिनेमा के इतिहास में वो मकाम दिलाया, जो कम निर्देशक ही हासिल कर पाए। इस फिल्म ने कई सिनेमाघरों में लगातार 100 हफ्ते चलकर कामयाबी के रिकॉर्ड बनाए। गोविंद मूनिस फिल्मों के अलावा टीवी और बालफिल्मों के लिए भी लगातार सक्रिय रहे। बांग्ला फिल्मों और बांग्ला संगीत के प्रचार प्रसार के लिए गोविंद मूनिस ने मुंबई में अलग अलग सस्थाएं बनाकर काफी काम किया।

सोमवार, 3 मई 2010

गुलज़ार ने गढ़ा नक्सलियों का नया नारा?


 ‘ठोंक दे किल्ली- चलेगा दिल्ली?’ बना माओवादियों का मार्चिंग सॉन्ग
 दण्डकारण्य के ट्रेनिंग कैंपों में खूब बज रहा है ‘रावण’ का ये गाना

मुंबई। चेन्नई के स्टूडियों में तैयार हुई और केरल के जंगलों में जीवंत हुई एक धुन छत्तीसगढ़ के निर्जन इलाकों में चल रहे नक्सलियों के ट्रेनिंग कैंप का मार्चिंग सॉन्ग बन गई है। मुंबई में रह रहे गीतकार गुलज़ार को शायद इस बात का अंदाज़ा भी नहीं होगा कि मणि रत्नम की जल्द आने वाली फिल्म रावण के लिए जब वो दिल्ली के ख़िलाफ़ कलम उठाएंगे तो वो नक्सलियों का नया नारा बन जाएगा। जी हां, नक्सलियों का नया नारा है –ठोंक दे किल्ली यानी नेल दैट।
वैसे तो मणिरत्नम की फिल्म रावण को शुरू से ही रामायण का रूपांतरण बताया जाता रहा है, लेकिन असल बात ये है कि ये दरअसल किसी तरह के राजनीतिक विवाद से बचने के लिए फिल्म बनाने वालों की तरफ से रचा गया एक छद्म आवरण है। बताया जा रहा है कि रावण दरअसल माओवाद को नक्सलियों के नज़रिए से दिखाने की कोशिश करती है। और, नक्सलियों के मिशन दिल्ली को उजागर करता है गुलज़ार का लिखा गाना – ठोंक दे किल्ली। इस गाने में देश की राजधानी दिल्ली का न सिर्फ जमकर खिल्ली उड़ाई गई है बल्कि इशारों इशारों में सोनिया गांधी पर भी निशाना साधा गया है। जी हां, वही गुलज़ार जो इससे पहले फिल्म इंदिरा गांधी पर फिल्म आंधी बनाकर सियासी निशाने पर आ चुके हैं।
ठोंक दे किल्ली में गुलज़ार ने नक्सलियों को एक दूसरे से दिल्ली चलने की बात पूछते दिखाया है और दिल्ली की गिल्ली उड़ा देने की बात भी कही है। यानी राजधानी को चारों तरफ से घेर कर उस पर कब्ज़ा करने की बात, जो माओवाद का मूल सिद्धांत है। इस गाने में दिल्ली को झूठी सच्ची और ऐसी मक्कार सहेली बताया गया है, जिसमें कूट कूट कर कपट भरा है। नक्सलियों को ये गाना इसलिए भी पसंद आ रहा है कि इसमें सीधे सीधे अपना हिस्सा हासिल करने की बात कही गई है। गाना जब ए आर रहमान के संगीत पर मचलता हुआ शबाब पर पहुंचता है तो सुखविंदर सिंह की आवाज़ में – सदियों से चलता आया है ऊंच नीच का लंबा किस्सा, अबकी बार हिसाब चुका दे छीन के ले ले अपना हिस्सा। - सुनकर रगों में दौड़ते खून की रफ्तार भले तेज़ हो जाती हो, लेकिन जानकार कहते हैं कि इस तरह के सियासी संदेश देने की कोशिशें हिंदी सिनेमा में कम ही हुई हैं।
रावण का ये गीत हिंदी और तमिल दोनों भाषाओं में तैयार किया गया है। हिंदी फिल्म में इसे अभिषेक बच्चन पर और तमिल में वहां के सुपर स्टार विक्रम पर फिल्माया गया है। दिलचस्प बात ये है कि विक्रम ही हिंदी संस्करण में राम का यानी एक पुलिस अफसर का रोल कर रहे हैं, जिसकी पत्नी रागिनी (ऐश्वर्य राय) को बीरा (अभिषेक बच्चन) उठा ले जाता है। बीरा रागिनी की हत्या करना चाहता है, लेकिन रागिनी बच जाती है। इसके बाद पूरी फिल्म में रागिनी के नज़रिए से बीरा की मानसिकता को परदे पर दिखाया गया है, यानी नक्सलवाद का ऐसा चेहरा जो माओवादियों का हत्यारा नहीं बल्कि मजबूरी में हथियार उठाने वाला बताता है।
देश में सक्रिय उग्रवादी संगठन अपने अभियान को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए फिल्म निर्देशकों से संपर्क करते रहते हैं। उल्फा ने भी बीच में मशहूर फिल्म निर्देशक जानू बरुआ से एक फिल्म बनाने की गुज़ारिश की थी। नक्सलवाद को माओवादी नज़रिए से परदे पर पेश करवाने के लिए भी बिहार और झारखंड के नक्सली नेता एक भोजपुरी फिल्म बनाने के लिए अरसे से प्रयासरत हैं। और इस बारे में वो मीडिया से जुड़े लोगों के संपर्क में भी हैं। अब रावण के गाने ठोंक दे किल्ली ने सीपीआई (माओवादी) का नारा बनकर घर घर तक माओवाद पहुंचाने का बीड़ा उठाया है।
इस गाने को वैसे तो फिल्माया अभिषेक पर गया है, लेकिन गुलज़ार जिन्हें अभिषेक प्यार से मामू कहते हैं, इस गाने में अमिताभ बच्चन की भावनाएं भरने की कोशिश भी करते दिखते हैं। दिल्ली की तरफ से उन पर होते रहे कथित हमलों का जवाब इस गीत में है। जहां एक तरफ ये गाना कहता है - किसमें दम है जो सूरज (अमिताभ का अर्थ भी सूरज ही होता है) बुझाए, वहीं दिल्ली को मुजरे का नज़राना मांगने वाला भी बताया गया है यानी हर मशहूर अभिनेता को सियासत अपनी तरह से इस्तेमाल करने की कोशिश करती रहती है।
गुलज़ार और मणिरत्नम दोनों को सम सामयिक सियासी मसलों पर फिल्म बनाने का शौक रहा है। मणि रत्नम ने अगर रोजा में इस्लामी आतंकवाद को सबसे पहले परदे पर उतारा तो बंबई में सांप्रदायिकता के ज्वार के बीच एक प्रेम कहानी भी उन्होंने गढ़ी। रावण उनकी नयी सियासी फिल्म है जिसमें वो ये बताने की कोशिश कर रहे हैं, रावण आज हम सबके भीतर है, और उसे पहचानने और मारने की बजाय उसे पहचानने और समझने की ज़रूरत है। हालांकि, इस बारे में सवाल करने पर फिल्म के निर्देशक मणि रत्नम न तो इसे मानते हैं और न ही नकारते हैं। वो कहते हैं कि ये उनका अपना विचार है और जिसे हम सही मानते हैं वो दूसरे के नज़रिए से गलत हो सकता है जबकि जिसे हम गलत मानते हैं, वो दूसरे के लिए सही हो सकता है। मैंने बस नज़रिए के इसी फर्क को परदे पर दिखाने की कोशिश की है।