गुरुवार, 18 जून 2009

ऐ जाने वफ़ा ये जुल्म न कर...




तो भैया, अब ये भरम भी जाता रहा कि आदमी अपने काम से जाना जाता है। अब मिसल ये दी जाती है कि दुनिया में रहना है तो आराम करो प्यारे, हाथ जोड़ सबको सलाम करो प्यारे। और दिक्कत ये है ससुरी कि हमने अच्छी अच्छी चीज़ें लगता है कुछ ज्यादा ही पढ़ ली हैं। स्कूल में थे तो संस्कृत वाले पंडित जी ने पढ़ा दिया – अभिवादनशीलस्य नित्यम वृद्धोपिसेविन:, वर्ध्यन्ते तस्व चत्वारि आयुर्विद्या यशोबलम्। मतलब ये कि आयु, विद्या, यश और बल में जो तुमसे बड़ा हो, उसे सलाम करने में कभी ना हिचको। हमने बात गांठ बांध ली। और, ससुरी गड़बड़ हर बेर येईं होए जाय रही। मालिक होगा, तो कम से कम उम्र में तो बड़ा ही होगा। ठीक है उसको सलाम। बॉस होगा तो विद्या माने अक्ल में बड़ा हो ना हो, कम से कम दुनियादारी तो ज्यादा ही सीखी होगी, उसको भी सलाम। साथी भी कई बार ज्यादा मशहूर होगा, टीवी और फिल्म के धंधे में तो तमाम होते हैं, उनको भी सलाम। और, बल में तो भैया नुक्कड़ के नत्थू पहलवान बड़े हैं ही और गाड़ी के गेट से टर्न लेते ही उनको सलाम सुबह शाम हो ही जाता है।
अब इस पूरी पढ़ा लिखी में जे बात कतऊं ना आए रही कि भैया सलाम कुछ अउरो लोगन क करन पड़िहै। जिन लोगन के बाल बच्चा नौकरी चाकरी करै लायक होए गए होयं। वे बात ध्यान से सुनैं। नाव कागज की गहरा है पानी, दुनियादारी पड़ेगी निभानी। चाहे तो इस गाने से सीख ले लें, जो आसान भी है और चाहें तो तुलसीदास जी की जे चौपाई बाल गोपालन के कंप्यूटर पर चस्पा कर दें – प्रनवऊं प्रथम असज्जन चरना। ना जाने किस मुहूर्त में फिल्म बनाने निकल पड़े कि मुंबई पहुंचते ही रिसेसन आ गया। पहले हिमेश रेशमिया ने टी सीरीज़ का बंटाधार किया, फिर अपने खिलाड़ी कुमार ने लाइन से तीन तीन कंपनियों की लुटिया डुबो दी। पिरामिड सायमीरा का डिब्बा गोल हो गया, इरॉस ने भी फिल्म बनइबे से तौबा कर ली। आज फिल्म भोले शंकर होम वीडियो पर बाज़ार में पहुंची तो बेचारे अपने प्रोड्यूसर साहब फिर याद आ ही गए। लालच बुरी बला, लेकिन हमारे प्रोड्यूसर साहब फिल्म बनते ही ये भूल गए कि प्रोजेक्ट बनाते समय उनसे मुनाफे में तिहाई की भागेदारी तय हुई थी। आखिरी चेक पकड़ाने से पहले ही नया एग्रीमेंट बना लाए और लिखवा लिया कि बच्चे जैसे पाल पोसकर बनाई फिल्म के मुनाफे पर अब हमारा कोई हक़ नहीं। हम सोचे कि इंसान क्या इतना भी लालची होता है। तह तक गए तो पचा चला कि बेटा लाल की करतूत है। बेटा लाल के अलग शौक और अलग ढंग। साथी भी न्यारे न्यारे।
और, बेटा लाल चाहें मुंबई के हों या फिर रायपुर के, पैसा अगर मेहनत से कमाने की बजाय विरासत में मिल गया हो, तो शौक न्यारे न्यारे हो ही जाते हैं। खुदा ना खास्ता अगर हाथ में मीडिया की पगही आ जाए तो फिर बातै का। उनको बस यही लगता है कि जो भी उनकी बैलगाड़ी खींच रहा है वो बस बैल ही है। ना बेचारे का कोई धर्म होगा ना कर्म। बस वो पगही खींचे तो बाएं, वो पगही खींचे तो दाएं। अपने साथ दिक्कत ये कि ना तो कभी पीठ के बल गिरे कि टूटी रीढ़ के हो जाते और ना किसी ने सिखाया कि बेटा नौकरी के नौ काम, दसवां काम जी हुजूरी। तो सींग भी ना कटवाए। अब सेठ के जाते ही बेटा अगर उसकी कुर्सी पर बैठे और जानबूझकर नौ नौटंकियां बस इस बात की करे कि देखो चलती किसकी है. तो ऐसे सेठ की दुकान का तो बस भगवान ही भला करे। आठ महीने की दुकानदारी में अगर चार चार सेल्सेमैन बदल जाएं तो भैया खराबी सेल्समैनों में ना, कहीं ना कहीं दुकान में ही होगी। अब बताया जे जाय रहा कि सेठ भले कित्तउ खुस हो जाए, सेठ के लौंडे की ना सुनी तो खैर नाईं।
वैसे मीडिया की दुनिया के जे उसूल है कि किसी ना किसी मठ के आगे तो सिर झुकाना ही पड़ेगौ। जिनने ना झुकाए वो या तो खेत रहे या खेत जोत रहे। और हमने सुन लौ वो गानो – अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। लेकिन, सेठ के लौंडन को यौ ठीक नाई लागत। उनसे ये बताओ कि दुकान में सेंधमारी हो रही है, तो वो बोले कि तुम्हूं थोड़ा सा हिस्सा लो, और चुप रहो। हमको मीडिया दुकान के मजे लूटने दो। अब या तो चोर बनो या फिर तमाशबीन। खतरा दोनों सूरत में है। और अगर दुकान कहीं किसी बड़े ब्रांड की फ्रैंचाइजी है तो खतरा और बड़ा है। कब किसके कंधे पर रखकर कौन गोली चला दे, पता नहीं और गोली मारने के बाद अपनी पीठ में मलहम भी लगाने को कहे तो बड़ी बात नहीं। सेठ कहेगा कि भैया हम तो एजेंसी की मार्फत लाए थे, अब एजेंसी तुम्हें दूसरी जगह भेजने को कह रही है जाओ। एजेंसी कहेगी कि हमारा तो बड़ी ब्रांड की कंपनी से नाता ही टूट गया, हमसे मत पूछो। कंपनी कहेगी कि हमारा और एजेंसी का कोई लेना देना ही नहीं, तो हमारी क्या जिम्मेदारी। फिर जब सबसे एक एक कर पूछने लगोगे तो वो बता देंगे नाम सबसे बड़े अफसर का कि भई वो नाराज़ हैं तो हम क्या करें। सब इसी गुंताड़े में कि गेंद दूसरे के पालते में डालते जाओ और अपनी नाक बचाते जाओ। सबको यही गुमान कि सबसे बड़ा अफसर तो किसी से बात ही नहीं करता तो इससे क्या करेगा। लेकिन, समय की बलिहारी है। इस खेल का खुलासा भी आज हो ही गया। बड़े अफसर को ये तक पता नहीं कि नीचे हो क्या रहा था और नीचे वालों ने उसी के नाम पर पूरा चक्रव्यूह बना डाला। ज़रा सोचिए, सवाल आपका है। लेकिन, नहीं, अगर आप जी हुजूरी सीख चुके हैं, तो आपका नहीं भी हो सकता है।


फोटो परिचय- इस मुहाने का सिरा किधर है? कांगेर वैली नेशनल पार्क में कोटमसर गुफा का प्रवेश द्वार। फोटो: पंकज शुक्ल

7 टिप्‍पणियां:

  1. दादा बहुत नीके लिखे हो.....उन्नाव के हमऊ हैं और और छोटे लेबल पर ही सही बिना किसी की जी हुजूरी करे बीवी बच्चों का पेट पाल रहे हैं..आप तो सिनेमा की तरफ निकल लिए लेकिन इस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो अजब हालत है...जिसकी पूँछ उठाकर देखो सब जुगाडू या चापलूस ही मिलते हैं....सब के सब लंगोट के ढीले भी...ये हम उन लोगों के बारे में कह रहे हैं जो नौकरी देने और लेने की हैसियत रखते हैं...क्या कहते हैं ऐसा ही रहेगा या समय बदलेगा कभी ?

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  2. शरद भाई,
    समय ज़रूर बदलेगा, जो लोग नहीं बदलते उन्हें समय बदल देता है। और ऐसा भी नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सारे लोग ऐसे ही हैं, इसी मीडिया में एस पी सिंह भी हुए और राहुल देव जैसे लोग भी हैं। टीवी को अपने यहां बीबीसी या सीएनएन बनने में वक्त लगेगा, लेकिन ये सूरत बदलेगी ज़रूर। बस कोशिश जारी रहनी चाहिए।
    कहा सुना माफ़,
    पंकज शुक्ल

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  3. अच्छा हुआ कि ऐसे संस्थान से समय रहते पीछा छूट गया....
    अपनी तरफ एक कहावत है....कि.....अभी गधा कम ही खेत खाया है....

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  4. सर आपने तो कई बरसातें देखी होंगी।लेकिन तीन साल को कैरियर में इतने रंग देखे लिये है कि अब तो भविष्य की तसवीर भी धुंधली नजर आती है। जब पढते थे तो यही लगता था कि इस कि पत्रकारिता में आकर तीर मार देंगे। लेकिन इतने तीर लग चुके कि अब तो दर्द सहने की आदत सी हो गयी है। बस काम किये जा रहे हैं।

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  5. आप की बात एकदम सही है....
    आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
    एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....

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  6. पंकज जी, शायद यही जिंदगी के सबक हैं जिसे लगातार झेलना व सीखना पड़ता है। आप उन तमाम लोगों से ज्यादा निर्मल व स्वच्छ इसीलिए हैं कि बिना ठहरे जीवन की धारा में बहते रहे हैं। जो किसी एक ही जगह ठहरे हुए हैं उनकी हालत ज्यादा बदतर है। बाहर से वे भले सुखी हो लेकिन अंदर से वे व्यवस्था की सडांध को झेलने को मजबूर हैं। आप कम से कम लगातार अनुभव के धनी तो हो ही रहे हैं। बाकी धन भी आएगा। लगे रहिए।

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  7. पंकज जी जो आप देख रहे हैं वही सच है। सर्वत्र है। क्या करोगे। इसी व्यवस्था में अपने लिए कोई कोना ढूंढ लो। मैं जानता हूं। मन नहीं मानता खुद से बगावत करता है। लेकिन कई बार खुद के लिए न सही अपनों से जुड़े लोगों की खातिर मन को समझाना पड़ता है। शायद यहीं हम विवश होते हैं। संघर्ष व समझ से नए पैमाने खड़े कीजिए जो आपको सफलता व सुकून दोनों दे सकें।

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