मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007

लागा सिनेमा में दाग


पंकज शुक्ल

पिछले हफ्ते जो दो फिल्में रिलीज़ हुईं, उनमें से एक ‘लागा चुनरी में दाग’ का शुरुआती कारोबार देखकर बड़े बड़े फिल्म पंडितों के होश फाख़्ता हैं। अपनी दिलरुबा यानी ऐश्वर्या राय से शुभ परिणय के बाद छोटे बच्चन की कतार से ये तीसरी फ्लॉप फिल्म हो सकती है। इनमें से ‘राम गोपाल वर्मा की आग’ में वो स्पेशल एपीयरेंस में थे जबकि ‘झूम बराबर झूम’ और ‘लागा चुनरी में दाग’ यशराज फिल्म्स की महात्वाकांक्षी फिल्मों में से रहीं। पहले दिन के शुरुआती शोज में महज 15 से 20 फीसदी का कलेक्शन करने वाली फिल्म ‘लागा चुनरी के दाग’ का कारोबार बाद में कुछ सुधरा तो है लेकिन फिल्म की ओपनिंग इतनी ठंडी रहेगी ये किसी ने सोचा तक नहीं था। नाकामी ये किसी फिल्म या किसी सितारे की नहीं, बल्कि एक सोच की है। सोच, जिसे महान निर्देशक बी आर चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा की कंपनी यशराज फिल्म्स पानी दे रही है। ये सोच है सिर्फ बड़े सितारों को लेकर सुनी सुनाई सी कहानियों पर फिल्में बनाने की। ऐसा नहीं है कि यशराज फिल्म्स ने सिर्फ मसाला फिल्में ही इधर बनाईं, इन्होंने ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी लीक से इतर फिल्म पर भी दांव लगाया लेकिन ऐसा दांव एक बार चूक जाने के बाद छोड़ देने के लिए नहीं होता।

सिनेमा में यशराज फिल्म्स के योगदान को कोई नकार नहीं सकता। लेकिन, इधर यशराज फिल्म्स के नए सिनेमा में योगदान को लेकर एक बहस शुरू हुई है। और ये बहस शुरू की है बाग़ी तेवरों वाले लेखक निर्देशक अनुराग कश्यप ने। अनुराग से पहली मुलाक़ात ‘शूल’ के समय मनोज बाजपेयी के साथ हुई थी और इस बात को देखकर हैरानी होती है कि इतनी ठोकरें खाने और इतनी परेशानी झेलने के बाद भी इस शख्स के भीतर की आग अभी चुकी नहीं है। ये शख्स फीनिक्स की तरह हर बार राख से उठ खड़ा होता है, अपने डैने फैलाए, एक नई उड़ान के लिए। बात यशराज फिल्म्स की इन दिनों चल रही है उनकी नई फिल्म ‘लागा चुनरी में दाग’ को लेकर। गुणी निर्देशक प्रदीप सरकार को यशराज फिल्म्स में काम करने का मोह ही ऐसी फिल्म बनवा सकता है, इस फिल्म को बनाने में कितनी उनकी चली और कितनी यशराज फिल्म्स के कर्णधारों की, कहा नहीं जा सकता।

यशराज फिल्म्स हिंदी सिनेमा का ऐसा बैनर है, जिसे हर दूसरा निर्देशक गाली देता है। डेढ़ दशक से ज़्यादा की फिल्म पत्रकारिता में मुझे ऐसा बिरला ही मिला, जिसने यशराज फिल्म्स की बड़े सितारों पर पकड़ को लेकर आहें ना भरी हों। लेकिन ये ही इकलौता बैनर भी है जिसने हिंदी सिनेमा का चेहरा बदलने का बीड़ा सबसे पहले उठाया। लेकिन क्या ये चेहरा महज ‘चक दे इंडिया’ जैसी इक्का दुक्का फिल्में बनाकर बदल सकता है। और वो भी तब जब इस फिल्म पर खुद यशराज फिल्म्स को ही ज़्यादा एतबार नहीं था। कम लोगों को ही ये बात पता होगी, कि अपनी फिल्में थिएटर में अपनी शर्तों पर रिलीज़ करने वाले यशराज फिल्म्स ने इस फिल्म को लेकर कोई चूं चां नहीं की। फिल्म कुछ अपनी थीम के चलते और कुछ शाहरुख खान के चलते करोड़ों का कारोबार कर चुकी है, लेकिन इस फिल्म ने एक बार फिर बता दिया है कि यशराज फिल्म्स की बाज़ार की नब्ज़ पर पकड़ ढीली हो रही है। यशराज फिल्म्स की कारोबारी समझ की कलई पहली बार ‘खोसला का घोसला’ से खुली थी, जब अपने ही क्रिएटिव हेड की कंपनी में आने से पहली बनाई गई फिल्म में इस कंपनी को दम नज़र नहीं आया।

यशराज फिल्म्स को हिंदी सिनेमा में काम करने वाले चंद लोग ऐसा बरगद मानते हैं जो अपने आस पास किसी नए पौधे को उगने नहीं देता। हर बड़े कलाकार को ये बैनर अपनी मुट्ठी में रखना चाहता है, वो चाहे अमिताभ बच्चन हों या फिर शाहरुख खान। सलमान खान और जॉन अब्राहम जैसे कुछ कलाकार हैं जो अपना अलग आशियाना बनाने की कूवत रखते हैं, लेकिन इनके इस बैनर में काम ना करने की अपनी वजहें हैं और इनमें से सबसे बड़ी है इन सितारों का मर्दानापन। ये जो भी बात सोचते हैं, उसे खुलकर कहते हैं। ‘लागा चुनरी में दाग’ बनते वक़्त तमाम बातें अभिषेक बच्चन के जेहन में भी आई होंगी, लेकिन वो कहने से कतराते रहे। फिल्म की हीरोइन अगर रानी मुखर्जी हों और फिल्म यशराज फिल्म्स की हो तो भला दूसरे के लिए कुछ कर दिखाने का मौका ही कहां बचता है। लेकिन जो बात लोगों को बार बार खाए जा रही है वो ये कि आखिर कब तक ये बैनर ऐसी फिल्में बनाता रहेगा।

बहस सिर्फ कथानक की ही नहीं, बहस इस बात की भी है कि आखिर सिनेमा को नए सितारे देने की ज़िम्मेदारी किसकी है। ऋतिक रोशन के बाद से हिंदी सिनेमा एक नए सितारे को तरस रहा है। और, गौरतलब बात ये है कि कपूर खानदान के नए चेहरे रनबीर को रुपहले परदे पर लाने का सेहरा बंध रहा है एक विदेशी कंपनी सोनी पिक्चर्स के सिर। राकेश रोशन अपने बेटे को ही प्रमोट करते रहेंगे। यशराज फिल्म्स को बच्चन परिवार और शाहरुख खान से आगे सोचने की फुर्सत नहीं है। रामगोपाल वर्मा भी घूम फिरकर इसी दायरे में आ जाते हैं। रवि चोपड़ा भी अपने ताऊ के रास्ते पर ही हैं। विधु विनोद चोपड़ा की दौड़ भी सीमित है तो फिर आगे आएगा कौन? अनिल कपूर की इस बात के लिए ताऱीफ़ करनी चाहिए कि इसकी शुरुआत उन्होंने ‘गांधी-माई फादर’ बनाकर की, लेकिन अगर ऐसी फिल्म को भी ऑस्कर में भेजने लायक ना माना जाए तो फिर हिंदी सिनेमा के दामन को दागदार होने से बचाएगा कौन?

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