सोमवार, 23 जुलाई 2007

ख़बरें जो स्याही तक नहीं पहुंचीं

नमस्कार, सत श्री अकाल, आदाब और...माफ़ कीजिएगा, अंग्रेजी में ऐसा कोई भाव शब्द नहीं है जो किसी भी समय बिना घड़ी के सहारे बोला जा सके...वहां सब कुछ वक़्त से तय होता है।

ख़ैर, शुक्रिया उस घड़ी का जब हम 14 घंटे रोज़ की गुलामी से मुक्त हुए। वरना अभी रात के 12 बजकर 8 मिनट पर कल के बुलेटिन्स की प्लानिंग ही सपने में घूम रही होती। वैसे गुलामी का भी अपना एक नशा है। ये सिर पर सवार हो तो दुनिया में कुछ और नज़र ही नहीं आता।

अब मुद्दे की बात। हम यहां हैं कुछ ऐसी ख़बरों को खंगालने के लिए, जो हमारे आपके करियर में कभी ना कभी हाथ ज़रूर लगती हैं, लेकिन जिन्हें टीवी पर चलाना या अख़बार में छापना संपादकों के नीति नियंताओं को ठीक नहीं लगता।

अमर उजाला अगर एम एस सुब्बा पर 13 साल पहले मेरी डेढ़ महीने की इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग के बाद लिखी ख़बर को छाप चुका होता तो शायद वो आज भारत ही छोड़ चुके होते। फुल पेज लॉटरी के विज्ञापन की मजबूरी कहें या एक क्षेत्रीय अखबार का लैक ऑफ कॉन्फीडेंस, वो ख़बर मुरादाबाद से बरेली, बरेली से मेरठ और मेरठ से आगरा के बंडलों में कहीं दम तोड़ गई। वो तो भला हो भावदीप कंग का जो हमें रास्ता दिखा गईं। प्रियंका और रॉबर्ट वढेरा के मोहब्बतनामे का पहला पन्ना ख़ाकसार ने मुरादाबाद में बैठकर खोला था, जब दोनों नैनीताल से लौटते वक़्त ज़रा देर के लिए मुरादाबाद में रुके थे और हमारे कुछ ख़ाकी के भाइयों ने ये किस्सा हमारे कान में डाल दिया। और इस किस्से को सुनने के लिए दिल्ली से मुरादाबाद आने वालों में सबसे सही सलाह उन्होंने ही दी।

ऐसी तमाम ख़बरें आज भी हमारे साथी करते हैं लेकिन उन्हें लोगों के सामने लाने में कहीं ना कहीं कोई ना कोई रुकावट आ ही जाती है। नौकरी के नौ काम दसवां काम जी हुजूरी, ये बात पापा ने सिखाई तो कई बार, लेकिन समझ में बहुत देर से आई। इतनी देर से कि अब उसे दुरुस्त करना मुमकिन नहीं।

ऐसा नहीं होता तो बहुत कुछ हो चुका होता। हमारे न्यूज़ीलैंड जाने से कारोबारी राजेशजी हमसे नाराज़ ना होते। हम घर जैसा अमर उजाला ना छोड़ते। जी हुजूरी नहीं करना ही शायद वजह रही होगी कि बीएजी में अंजीत अंजुम जी को हमारी भाषा और हमारी स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई। अगर हम भी दाएं-बाएं रहने की बाज़ीगरी सीख जाते तो ज़ी न्यूज़ में महान संपादक राजू संथानम हम पर पॉलीटिक्स करने का इल्जाम ना लगाते। वैसे ये बात भी अब अचंभा नहीं लगती कि एक हिंदी ना जानने वाला पत्रकार भी हिंदी चैनल का संपादक बन सकता है। और बिना एक भी कॉपी लिखे या एक भी हेडलाइन बताए कोई संपादक मालिक से पगार ले सकता है, ये देखना भी किसी ख़बर से कम नहीं है। लेकिन ये ज़माने की बलिहारी है। सियासी रकम से सीडी (असली या नकली ये जानने का काम एक बार भाई रजत अमरनाथ कर चुके हैं) बनाने वाले अब चैनलों के मालिक हैं और यहां तक तय करते हैं कि पंजाब में पीलिया से कुत्ते के मरने की ख़बर चैनल पर चलेगी या नहीं।

बाकी फिर कभी...

3 टिप्‍पणियां:

  1. ye article yehi darshata hai ke ..khabron me hai dum..kahan se kahan pahuch gaye hum (Yani TV CHannel)..i think ke its high time koi aage r kahe ..ke han yehi sach hai..aaj ke waqte ke so called channels ka ..jinhe matlab hai sirf TRP se ...

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  2. its called spirit
    bahut zigra chahiye aisi baaton ko samne lane ke liye, and you did it
    ek sach hazaar jhooth pe bhaari hota hai aur yahan to kai sach hain
    jise padkar benqab chehre aaina talash rahe honge

    gr888 efort sir
    i can say only

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  3. क्या हाल है पंकज जी। आपने अपने ब्लाग में जिस तरह से पत्रकारिता के नाम पर मठाधीशों की पोल खोली है उसके लिए बधाई। कहां हैं गुरू? दरअसल आजकल लोग बनियों को बेवकूफ बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। फ्री में मठाधीशी करने का शगल भी पूरा हो जाता है।
    राजेश शुक्ल
    shuklarajesh68@gmail.com

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