मैं एक आम पत्रकार बनने से पहले फिल्म पत्रकार और फिर फिल्म समीक्षक कैसे बना, इसका भी एक दिलचस्प वाक्या है। अमर उजाला का जब कानपुर संस्करण खुला तो मैंने वहां बतौर प्रशिक्षु पत्रकार पूर्णकालिक पत्रकारिता को पेशा बनाया। इससे पहले दैनिक जागरण के फिल्मी पन्नों पर गाहे बेगाहे लिखा करता था। इसी बीच सुनील शेट्टी का एक इंटरव्यू मैंने किया। इंटरव्यू कोई खास नहीं था लेकिन पेशागत ईमानदारी के चलते इसे पहले अमर उजाला के फीचर विभाग को भेजा गया। वहां से सखेद रचना वापस आई और मैंने उसे जैसे का तैसा दैनिक जागरण के फीचर सेक्शन में फिल्म प्रभारी भाई प्रवीण श्रीवास्तव को दे दिया। वहां ये इंटरव्यू छपा तो कानपुर से लेकर मेरठ तक में हल्ला हो गया।
सफाई मांगी गई जो मैंने दी भी। फिर तय हुआ कि कानपुर में मेरा विकास नहीं हो सकता लिहाजा राजुलजी मुझे अपने साथ पहले रामपुर और फिर मुरादाबाद ले आए। वहीं मेरे इस सुझाव को मान्यता मिली कि अमर उजाला को भी साप्ताहिक फिल्म समीक्षाएं छापनी चाहिए। इस लिहाज से अमर उजाला का मैं पहला फिल्म समीक्षक बना।
खैर यहां जिक्र अपने सफरनामे का नहीं बल्कि ऐसी और एक बात का, जिसका जिक्र इस ब्लॉग के नाम के लिहाज से करने का मन कर रहा है। फिल्म समीक्षकों और फिल्म पत्रकारों की निर्देशक और निर्माता काफी खातिरदारी करते हैं। ऐसे ही एक दिन मेरे कुछ चंद करीबी शुभचिंतकों में से एक महेश भट्ट साहब का फोन आया। उन दिनों मैं अमर उजाला के फिल्म साप्ताहिक रंगायन का प्रभारी था और मेरी लिखी फिल्म समीक्षाएं कम से कम दिल्ली-यूपी और पंजाब टेरिटेरीज़ में फिल्मों की किस्मत तय करने लगी थीं। ऐसा मेरा नहीं बल्कि तमाम फिल्म वितरकों का मानना रहा, जिनमें से कुछ ने मेरी फिल्म समीक्षाओं का बुरा मानकर मालिकों तक शिकायत करने में कसर नहीं छोड़ी। इनमें सुभाष घई की फिल्म वितरण कंपनी भी शामिल रही और ये बात ताल को औसत से कमतर बताने के बाद हुई।
ख़ैर, बात भट्ट साहब की हो रही थी। उन दिनों शायद उनकी एक रिलीज़ होने वाली थी। वो दिल्ली में थे और सुबह सुबह एक दिन दफ़्तर पहुंचते ही उनका फोन आया। मिलने के इसरार से ज़्यादा ज़ोर इस बात पर था कि फिल्म को लेकर कुछ ऐसा लिखा जाए, जो मीडिया में हलचल बन जाए। इसके लिए अलहदा प्रस्ताव भी रखे गए। फिल्म पत्रकारिता के दौरान ये पहला मौका था ऐसा कोई प्रस्ताव मेरे सामने मेरी कलम की ताक़त के चलते आया था। ये उपलब्धि थी, या मेरे व्यक्तित्व को आंकने की भूल, आज तक समझ नहीं पाया। तब भी पहले पहल तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जाए? और क्या प्रतिक्रिया दी जाए? दिल्ली जैसे शहर में 15 हज़ार की तनख्वाह कुछ नहीं होती, और मन भी तरह तरह के प्रलोभनों के पीछे बुद्धि का पगहा तुड़ाकर भागने को तैयार सा दिखता था। लेकिन, दिल की ऐसी किसी तमन्ना को मैंने धीरज की घुट्टी पिलाकर समझाया और भट्ट साहब को साफ साफ कह दिया कि ऐसी किसी सेवा की ज़रूरत नहीं है। हीरोइन की बोल्डनेस पर लेख बनता था सो मैंने लिखा। और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हलचल मचाने काबिल थी, वो भी फिल्म समीक्षा में लिखा। वो दिन है और आज का दिन है, भट्ट साहब ने किसी भी काम के लिए कभी मना नहीं किया। उनके दिल में मेरे लिए जो इज्जत इस वाकये के बाद बनी, उसका राज़ कम लोगों की ही पता है।
महेश भट्ट जैसा निर्माता अगर अपना काम छोड़कर रात 12 बजे ज़ी न्यूज़ के लिए मुंबई में उसके लोअर परेल स्टूडियो जाकर एंकरिंग करता है, तो ये इन्हीं रिश्तों का नतीजा है। और वो तब जब मैं अपने गांव में बैठकर सारी चीजें को-ऑर्डिनेट कर रहा था। भट्ट साहब ने न सिर्फ मेरा आग्रह माना बल्कि एंकरिंग ख़त्म कर रात डेढ़ बजे मुझे फोन भी किया और वो सिर्फ ये बताने के लिए ये काम उन्होंने ज़ी न्यूज़ के लिए या किसी मीडिया टायकून के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ पंकज शुक्ल के लिए किया।
ये उनका बड़प्पन है। अपने गुरु के निधन के बाद अज्ञातवास में जाने के बाद भी भट्ट साहब से जिन चंद लोगों का लगातार संपर्क बना रहा, उनमें मेरी भी गिनती होती रही। इसका फायदा उठाने के लिए ज़ी न्यूज़ के तत्कालीन संपादक श्री राजू संथानम ने काफी ज़ोर दिया। वो खुद भी इससे पहले भट्ट साहब से मिलने गए थे और तब भट्ट साहब ने उनसे एक बात ही कही थी कि ज़ी न्यूज़ में वो अगर किसी को करीब से जानते हैं, तो वो है पंकज शुक्ल। शायद ये बात किसी संपादक के गले नहीं उतरेगी कि उसके सामने उससे कद में बड़ा कोई शख्स उसके ही जूनियर की इतनी तारीफ करे। मीडिया में काम करने वालों के तमाम राज़ ऐसे होते हैं, जिन पर नौकरी के दौरान पर्दा उठाने की फुर्सत नहीं मिलती। इन दिनों जिस फिल्म की कहानी पर मैं काम कर रहा हूं, उसे लिखते समय अक्सर भट्ट साहब का अक्स सामने घूमने लगता है। इस कहानी का मूल विचार जब मैंने उनके सामने रखा था, तो वो चौंक पड़े थे। अब ये कहानी धीरे धीरे शक्ल ले रही है। परदे पर कब आएगी? आएगी भी या नहीं, सब कुछ समय के हाथ है? इंसान का काम है कोशिश करते जाना, और उससे मैंने अब तक तो कभी मुंह नहीं मोड़ा?
बाकी फिर कभी...
सफाई मांगी गई जो मैंने दी भी। फिर तय हुआ कि कानपुर में मेरा विकास नहीं हो सकता लिहाजा राजुलजी मुझे अपने साथ पहले रामपुर और फिर मुरादाबाद ले आए। वहीं मेरे इस सुझाव को मान्यता मिली कि अमर उजाला को भी साप्ताहिक फिल्म समीक्षाएं छापनी चाहिए। इस लिहाज से अमर उजाला का मैं पहला फिल्म समीक्षक बना।
खैर यहां जिक्र अपने सफरनामे का नहीं बल्कि ऐसी और एक बात का, जिसका जिक्र इस ब्लॉग के नाम के लिहाज से करने का मन कर रहा है। फिल्म समीक्षकों और फिल्म पत्रकारों की निर्देशक और निर्माता काफी खातिरदारी करते हैं। ऐसे ही एक दिन मेरे कुछ चंद करीबी शुभचिंतकों में से एक महेश भट्ट साहब का फोन आया। उन दिनों मैं अमर उजाला के फिल्म साप्ताहिक रंगायन का प्रभारी था और मेरी लिखी फिल्म समीक्षाएं कम से कम दिल्ली-यूपी और पंजाब टेरिटेरीज़ में फिल्मों की किस्मत तय करने लगी थीं। ऐसा मेरा नहीं बल्कि तमाम फिल्म वितरकों का मानना रहा, जिनमें से कुछ ने मेरी फिल्म समीक्षाओं का बुरा मानकर मालिकों तक शिकायत करने में कसर नहीं छोड़ी। इनमें सुभाष घई की फिल्म वितरण कंपनी भी शामिल रही और ये बात ताल को औसत से कमतर बताने के बाद हुई।
ख़ैर, बात भट्ट साहब की हो रही थी। उन दिनों शायद उनकी एक रिलीज़ होने वाली थी। वो दिल्ली में थे और सुबह सुबह एक दिन दफ़्तर पहुंचते ही उनका फोन आया। मिलने के इसरार से ज़्यादा ज़ोर इस बात पर था कि फिल्म को लेकर कुछ ऐसा लिखा जाए, जो मीडिया में हलचल बन जाए। इसके लिए अलहदा प्रस्ताव भी रखे गए। फिल्म पत्रकारिता के दौरान ये पहला मौका था ऐसा कोई प्रस्ताव मेरे सामने मेरी कलम की ताक़त के चलते आया था। ये उपलब्धि थी, या मेरे व्यक्तित्व को आंकने की भूल, आज तक समझ नहीं पाया। तब भी पहले पहल तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जाए? और क्या प्रतिक्रिया दी जाए? दिल्ली जैसे शहर में 15 हज़ार की तनख्वाह कुछ नहीं होती, और मन भी तरह तरह के प्रलोभनों के पीछे बुद्धि का पगहा तुड़ाकर भागने को तैयार सा दिखता था। लेकिन, दिल की ऐसी किसी तमन्ना को मैंने धीरज की घुट्टी पिलाकर समझाया और भट्ट साहब को साफ साफ कह दिया कि ऐसी किसी सेवा की ज़रूरत नहीं है। हीरोइन की बोल्डनेस पर लेख बनता था सो मैंने लिखा। और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हलचल मचाने काबिल थी, वो भी फिल्म समीक्षा में लिखा। वो दिन है और आज का दिन है, भट्ट साहब ने किसी भी काम के लिए कभी मना नहीं किया। उनके दिल में मेरे लिए जो इज्जत इस वाकये के बाद बनी, उसका राज़ कम लोगों की ही पता है।
महेश भट्ट जैसा निर्माता अगर अपना काम छोड़कर रात 12 बजे ज़ी न्यूज़ के लिए मुंबई में उसके लोअर परेल स्टूडियो जाकर एंकरिंग करता है, तो ये इन्हीं रिश्तों का नतीजा है। और वो तब जब मैं अपने गांव में बैठकर सारी चीजें को-ऑर्डिनेट कर रहा था। भट्ट साहब ने न सिर्फ मेरा आग्रह माना बल्कि एंकरिंग ख़त्म कर रात डेढ़ बजे मुझे फोन भी किया और वो सिर्फ ये बताने के लिए ये काम उन्होंने ज़ी न्यूज़ के लिए या किसी मीडिया टायकून के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ पंकज शुक्ल के लिए किया।
ये उनका बड़प्पन है। अपने गुरु के निधन के बाद अज्ञातवास में जाने के बाद भी भट्ट साहब से जिन चंद लोगों का लगातार संपर्क बना रहा, उनमें मेरी भी गिनती होती रही। इसका फायदा उठाने के लिए ज़ी न्यूज़ के तत्कालीन संपादक श्री राजू संथानम ने काफी ज़ोर दिया। वो खुद भी इससे पहले भट्ट साहब से मिलने गए थे और तब भट्ट साहब ने उनसे एक बात ही कही थी कि ज़ी न्यूज़ में वो अगर किसी को करीब से जानते हैं, तो वो है पंकज शुक्ल। शायद ये बात किसी संपादक के गले नहीं उतरेगी कि उसके सामने उससे कद में बड़ा कोई शख्स उसके ही जूनियर की इतनी तारीफ करे। मीडिया में काम करने वालों के तमाम राज़ ऐसे होते हैं, जिन पर नौकरी के दौरान पर्दा उठाने की फुर्सत नहीं मिलती। इन दिनों जिस फिल्म की कहानी पर मैं काम कर रहा हूं, उसे लिखते समय अक्सर भट्ट साहब का अक्स सामने घूमने लगता है। इस कहानी का मूल विचार जब मैंने उनके सामने रखा था, तो वो चौंक पड़े थे। अब ये कहानी धीरे धीरे शक्ल ले रही है। परदे पर कब आएगी? आएगी भी या नहीं, सब कुछ समय के हाथ है? इंसान का काम है कोशिश करते जाना, और उससे मैंने अब तक तो कभी मुंह नहीं मोड़ा?
बाकी फिर कभी...